शनिवार, 12 जून 2010

वक़्त से हाथ मिला लिया

हिन्दयुग्म से बैरंग लौटी मेरी रचना ,...

जीने की आरजू ने हर गम भुला दिया
रोये बहुत थे हम मगर , चाहत को सुला दिया

भारी पड़ता है इश्क तो गमे-रोज़गार पर
न हवा निवाला बनती , क्या पी के जी रहते
उतरे जो हम जमीं पर , टुकड़ों ने सिला दिया
जीने की आरजू ने हर गम भुला दिया

दबी सी हैं चिंगारियाँ कुछ राख के तले
न हवा कभी चलती , न कभी वो लपटें उठतीं
होती जो कभी आहट , उसने ही क्या कुछ हिला दिया
जीने की आरजू ने हर गम भुला दिया

अश्कों में ढला गम तो गीतों में सज गया
जब कुछ न रहा बाकी , तो कुछ बन के आ गया
लो इसने आज भी , जीने की वजह से मिला दिया
जीने की आरजू ने हर गम भुला दिया

ढूँढा बहुत तुझे ऐ दोस्त अपनों के लग गले
तुझे कुछ सुनाई नहीं देता , तन्हाई में भी कितना शोर पले
मर्जी उसकी है , वक़्त से हाथ मिला लिया
जीने की आरजू ने हर गम भुला दिया

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10 टिप्‍पणियां:

  1. जीने की आरजू ने हर गम भुला दिया.......सटीक

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  2. अश्कों में ढला गम तो गीतों में सज गया
    जब कुछ न रहा बाकी , तो कुछ बन के आ गया
    लो इसने आज भी , जीने की वजह से मिला दिया
    जीने की आरजू ने हर गम भुला दिया
    Yah aarzoo sada bani rahe!Jeene kee wajah sada milti rahe! Ameen!

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  3. आपकी लेखनी में दम है । कहीं कहीं शब्द कम ज्यादा होने से छंद गडबड हो रहा है । पर बहुत सुंदर कविता ।

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  4. मिसेज जोगलेकर ,

    जैसे फ़िल्मी गीत लिखे जाते हैं , बस कुछ उसी अन्दाज़ में मैंने इस गीत को गाते गाते लिखा था , अब इसे आप मेरी आवाज़ में मेरे ब्लॉग पर सुन सकती हैं । आप चाहें तो प्रतिक्रिया दे सकती हैं ...पिछली टिप्पणी के लिए बहुत बहुत धन्यवाद

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मैं भी औरों की तरह , खुशफहमियों का हूँ स्वागत करती
मेरे क़दमों में भी , यही तो हैं हौसलों का दम भरतीं