रविवार, 26 सितंबर 2010

इतना चुप हो जाऊँ

इतना चुप हो जाऊँ
कि बुत हो जाऊँ

तराशे गए हैं अक्स भी
मैं भी सो जाऊँ

सर्द आहों से पलट
जमाने की हवा हो जाऊँ

रूह को छू ले जो
रकीबों सी दुआ हो जाऊँ

कब बदलता है कोई
मैं ही काफिर हो जाऊँ

दर्द किसको नहीं होता
जुदा जिस्मो-जाँ हो जाऊँ

25 टिप्‍पणियां:

  1. रूह को छू ले जो
    रकीबों सी दुआ हो जाऊँ
    बहुत अच्छे भाव। बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
    काव्यशास्त्र (भाग-3)-काव्य-लक्षण (काव्य की परिभाषा), आचार्य परशुराम राय, द्वारा “मनोज” पर, पढिए!

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  2. बुत क्यों बनना जी ...

    खूबसूरत अभिव्यक्ति

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  3. इतना चुप हो जाऊँ
    कि बुत हो जाऊँ
    दिल को छू लेने वाली रचना, बधाई

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  4. bhav ek se hai bas likhne ka andaaz alg alg hai...

    bahut accha likha hai aapne

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  5. रूह को छू ले जो
    रकीबों सी दुआ हो जाऊँ
    बहुत सुन्दर शेर है। रूह को छू लिया।

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  6. बुत खामोश होता है पर हम खामोश क्यों हों
    गजल बहुत अच्छी है

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  7. bahut badiya gahre bhav liye aapke ye sher bahut pasand aae .
    Aabhar

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  8. तराशे गए हैं अक्स भी...मैं भी सो जाऊँ
    बहुत खूब...
    रूह को छू ले जो...रकीबों सी दुआ हो जाऊँ
    वाह...वाह....अच्छी रचना...बधाई.

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  9. बुत आप हो गयी तो
    कविता कौन लिखेगा
    आप का जो कर्म है
    वो पूरा कौन करेगा..
    छोडो ये हवा हो जाने की बाते..
    अब के काम पुरे न किये तो
    अगले जन्म फिर भरना पड़ेगा..

    हा.हा.हा.

    शारदा जी जरा सोचिये...
    सुंदर अभिव्यक्ति. :)

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  10. बहुत कुछ हो जाने की उम्मीदों पर एक बेहतर प्रस्तुति !

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  11. इतना चुप हो जाऊँ
    कि बुत हो जाऊँ

    तराशे गए हैं अक्स भी
    मैं भी सो जाऊँ
    बहुत अच्छी लगी आपकी ये प्रस्तुति

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  12. "इतना चुप हो जाऊँ
    कि बुत हो जाऊँ"

    बहुत अच्छी पंक्तियां लगीं।
    वैसे, न बोलना ही बुत होने का पैमाना है क्या?

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  13. अनामिका जी ,
    आपने कहा ,
    बुत आप हो गयी तो कविता कौन लिखेगा आप का जो कर्म है वो पूरा कौन करेगा॥छोडो ये हवा हो जाने की बाते..अब के काम पुरे न किये तो अगले जन्म फिर भरना पड़ेगा..
    अच्छा लगा , चलिए बताती हूँ कि मैंने ये क्यों लिखा , बुत यानि जो बाहरी हलचल से हिले न , और ये तभी हो सकता है जब जिस्म और जान के अहसास से जुदा होऊं ...तभी न , दर्द इतना गहरा असर न रखेगा , यूँ बाहर ही फिसल कर रह जाएगा ।
    सब टिप्पणी कर्ताओं का शुक्रिया ,जिन्होंने इतने प्यार से पढ़ कर प्रतिक्रिया के लिये वक्त निकला ।

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  14. बहुत ही खुबसूरत..............सूफियाना ढंग..................उस विराट का एक अंश मात्र ..........जहाँ तक मुझे लगा यहाँ बुत का मतलब बुद्ध जैसी समाधि से है ......... सुन्दर रचना.......शुभकामनाये|

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  15. बहुत ही अच्छी कविता है...
    कब बदलता है कोई
    मैं ही काफिर हो जाऊँ

    दर्द किसको नहीं होता
    जुदा जिस्मो-जाँ हो जाऊँ

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  16. चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना 28 - 9 - 2010 मंगलवार को ली गयी है ...
    कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया

    http://charchamanch.blogspot.com/

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  17. कितने कम लफ्ज़ .. कितने गहरे जज्बात ... बेहतरीन !

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  18. शारदा दीदी, आपने तो कमाल कर दिया ग़ज़ल में. यद्यपि बुत हो जाना हल नहीं है मगर आज हालात के नाकाबिले बर्दाश्त दर्द, इंसान को कभी कभी 'बुत' हो जाने की तमन्ना रखने पर मजबूर कर देते हैं. . . तमाम शेर कमाल हैं. शुक्रिया एक बेहतरीन रचना के लिए.

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  19. गहरे जज्बात.....शुक्रिया एक बेहतरीन रचना के लिए.

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  20. दर्द किसको नहीं होता
    जुदा जिस्मो-जाँ हो जाऊँ

    सुन्दर और सरल
    बंधाई स्वीकारें

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  21. दर्द किसको नहीं होता
    जुदा जिस्मो-जाँ हो जाऊँ
    ...गहरे जज्बात ... सुन्दर रचना

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मैं भी औरों की तरह , खुशफहमियों का हूँ स्वागत करती
मेरे क़दमों में भी , यही तो हैं हौसलों का दम भरतीं