यूँ ही नहीं आते हैं जलजले
धुरी से जमीं अक्सर खिसकी ही मिले
परेशान है दुनिया सारी
जाने किस दौड़ में शामिल सी ये लगे
मुस्कुरा के जो चल दे अकेले ही
आधार कोई उँगली पकड़े मिले
नया नहीं है कुछ भी सूरज के तले
नया तो वो है जो सह ले जिगर से चले
चढ़ आती है धूप मुंडेरों पर
धूप छाया की तरह जिन्दगी ही खिले
तारीफ़ तुम्हारी , गिले भी तुमसे
तुम ही तुम हो हमारे साथ चले




10 टिप्पणियां:
badhiya geet....
परेशान है दुनिया सारी
जाने किस दौड़ में शामिल सी ये लगे ............
समझ से परे है यह अंधी दौढ़ ..............सुंदर प्रस्तुति.
आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
--
संविधान निर्माता बाबा सहिब भीमराव अम्बेदकर के जन्मदिवस की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ-
आपका-
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
चढ़ आती है धूप मुंडेरों पर
धूप छाया की तरह जिन्दगी ही खिले
सुन्दर अभिव्यक्ति
अच्छा लिखा है!
तारीफ़ तुम्हारी , गिले भी तुमसे
तुम ही तुम हो हमारे साथ चले.
सच गीले शिकवे भी अपनों से ही होते हैं. बेहद खूबसूरत गज़ल.
मुस्कुरा के जो चल दे अकेले ही
आधार कोई उँगली पकड़े मिले
सुन्दर
बहुत सुंदर
बहुत ही सुंदर भावपूर्ण अभिव्यक्तिसमय मिले कभी तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है http://mhare-anubhav.blogspot.co.uk/
बहुत सुंदर । मेरे पोस्ट पर आपका इंतजार रहेगा । धन्यवाद ।
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