शुक्रवार, 13 अप्रैल 2012

तुम ही तुम हो

यूँ ही नहीं आते हैं जलजले 
धुरी से जमीं अक्सर खिसकी ही मिले 

परेशान है दुनिया सारी 
जाने किस दौड़ में शामिल सी ये लगे 

मुस्कुरा के जो चल दे अकेले ही 
आधार कोई उँगली पकड़े मिले 

नया नहीं है कुछ भी सूरज के तले 
नया तो वो है जो सह ले जिगर से चले 

चढ़ आती है धूप मुंडेरों पर  
धूप छाया की तरह जिन्दगी ही खिले 

तारीफ़ तुम्हारी , गिले भी तुमसे 
तुम ही तुम हो हमारे साथ चले 

10 टिप्‍पणियां:

अरुण चन्द्र रॉय ने कहा…

badhiya geet....

पी.एस .भाकुनी ने कहा…

परेशान है दुनिया सारी
जाने किस दौड़ में शामिल सी ये लगे ............
समझ से परे है यह अंधी दौढ़ ..............सुंदर प्रस्तुति.

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
--
संविधान निर्माता बाबा सहिब भीमराव अम्बेदकर के जन्मदिवस की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ-
आपका-
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

rashmi ravija ने कहा…

चढ़ आती है धूप मुंडेरों पर
धूप छाया की तरह जिन्दगी ही खिले


सुन्दर अभिव्यक्ति

Shah Nawaz ने कहा…

अच्छा लिखा है!

रचना दीक्षित ने कहा…

तारीफ़ तुम्हारी , गिले भी तुमसे
तुम ही तुम हो हमारे साथ चले.

सच गीले शिकवे भी अपनों से ही होते हैं. बेहद खूबसूरत गज़ल.

M VERMA ने कहा…

मुस्कुरा के जो चल दे अकेले ही
आधार कोई उँगली पकड़े मिले
सुन्दर

महेन्द्र श्रीवास्तव ने कहा…

बहुत सुंदर

Pallavi saxena ने कहा…

बहुत ही सुंदर भावपूर्ण अभिव्यक्तिसमय मिले कभी तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है http://mhare-anubhav.blogspot.co.uk/

प्रेम सरोवर ने कहा…

बहुत सुंदर । मेरे पोस्ट पर आपका इंतजार रहेगा । धन्यवाद ।