तुम जो चाहे सजा दे लो
मेरी बात और है , मैंने तो मुहब्बत की है
चाँदनी रात का भरम ही सही
दिल जला कर रौशनी की है
रूठ कर बैठा है मेरे घर में कोई
बन्द दरवाजों से मिन्नत की है
जिन्दगी यूँ भी गुजर जाती है
वीरानों से भी दोस्ती की है
हाले-दिल किस को सुनाने लगे
सजा में क्या कोताही की है
सह तो लेते हैं खुदा का करम
आदमी का करम , खुदा की मर्जी ही है
तुम जो चाहे सजा दे लो
मेरी बात और है , मैंने तो मुहब्बत की है