सोमवार, 23 फ़रवरी 2015

धूप हम भुला न सके

ये जो हाले-दिल तुम्हें हम सुना न सके
फासले दिलों के भी हैं ,जो मिटा न सके

तुम्हारे तरकश में तीर शब्दों के हैं
ज़ख्मी-जिगर निशाँ ,आज तक भुला न सके

उम्र भर पूछते रहे ज़िन्दगी का पता ही
फूल तेरी चाहत के ,अरमान खिला न सके   

धूप ही धूप उतर आई है शब्दों में 
छाया कितनी भी रही , धूप हम भुला न सके 

उँडेल कर रख दिया है सीना हमने 
जो तुम पढ़ न सके , हम पढ़ा न सके 

इक अदद दोस्त की तमन्ना ने हमें मारा है 
वरना ज़िन्दा थे हम भी ,क्यों गुनगुना न सके 

6 टिप्‍पणियां:

  1. शब्दों के तीर ज्यादा गहरा घाव करते हैं ... बहुत सुन्दर ...

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  2. धूप ही धूप उतर आई है शब्दों में
    छाया कितनी भी रही , धूप हम भुला न सके
    waah! kya baat kahi hai aap ne!

    bahut badhiya lagi yeh rachna!

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  3. हर शेर बहुत उम्दा. यह ख़ास पसंद आया...
    उँडेल कर रख दिया है सीना हमने
    जो तुम पढ़ न सके , हम पढ़ा न सके
    दाद स्वीकारें!

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  4. टिप्पणी कर्ताओं का बहुत बहुत शुक्रिया, हौसला अफ़ज़ाई तो बहुत होती है ,वरना यूँ लगता है कि शायद पढ़ने लायक लिखा ही नहीं ....

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  5. धूप ही धूप उतर आई है शब्दों में
    छाया कितनी भी रही , धूप हम भुला न सके

    जीवन के धूप-छांव में धूप की अनुभूति कहीं अधिक व्यापक होती है।
    अच्छी ग़ज़ल ।

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मैं भी औरों की तरह , खुशफहमियों का हूँ स्वागत करती
मेरे क़दमों में भी , यही तो हैं हौसलों का दम भरतीं