बुधवार, 27 अक्टूबर 2010

हम तेरे शहर से गुजरे

हम तेरे शहर से गुजरे , काफिला था साथ अपने
होते हैं दगाबाज तो , कच्ची उम्र के रंगी सपने 

खेल कर तुम तो गये , मन्जर हो गये हैं खड़े
चल रहे हैं गाफिल सी बहर में , यादों में सँग-सँग अपने

कुसूर कोई तो होता , टीस सी लिये दिल में
चिन्गारी दामन में लिये , यादों की हवाएँ थीं साथ अपने

बुझा दिए खुद ही , अपने हाथों अरमानों के दिये
कच्ची सीढ़ियाँ चढ़े थे , अपनी आँखों के रंगी सपने 

वफ़ा की राह में , बेकसी फूलों की देखो तो
खिले हुए हैं आरजू-ए-चमन में , खुशबू नहीं साथ अपने

28 टिप्‍पणियां:

  1. वफ़ा की राह में , बेकसी फूलों की देखो तो
    खिले हुए हैं आरजू-ए-चमन में , खुशबू नहीं साथ अपने

    वाह! क्या बात कही है…………बहुत ही सुन्दर,।

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  2. बुझा दिए खुद ही , अपने हाथों अरमानों के दिये
    कच्ची सीढ़ियाँ चढ़े थे , अपनी आँखों के रन्गीं सपने
    सच सपने होते ही है ऐसे बेवफा

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  3. "बुझा दिए खुद ही , अपने हाथों अरमानों के दिये
    कच्ची सीढ़ियाँ चढ़े थे , अपनी आँखों के रन्गीं सपने"
    बहुत गहरे भाव लिए हुए ग़ज़ल.. हर शेर उम्दा..

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  4. शारदा जी, बहुत ही सुंदर गजल। बधाई स्‍वीकारें।

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  5. बहुत ही सुन्दर रचना...मेरे ब्लॉग पर आकर टिप्पणी देने का बहुत बहुत धन्यवाद...यूँ ही उत्साह बढ़ाते रहें.

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  6. शारदा जी,

    ग़ज़ल बहुत उम्दा बन पड़ी है.....एक बात "रन्गीं" से आपका तात्पर्य 'रँगी' यानी रंगों से भरा है क्या?

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    1. जी हाँ , बहुत वक्त बाद आज पोस्ट पढ़ी तो लगा कि यही सही शब्द है मैं स्पेलिंग ठीक कर लेती हूँ ।

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  7. बुझा दिए खुद ही , अपने हाथों अरमानों के दिये
    कच्ची सीढ़ियाँ चढ़े थे, अपनी आँखों के रंगीं सपने

    अच्छे भाव के साथ साथ प्रस्तुतिकरण भी बहुत अच्छा है.

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  8. हाँ , इमरान जी रन्गीं का आशय यहाँ रंगीन से ही है , रंगी लिखने के बाद गी के पीछे अंग की बिंदी रोमन हिंदी में किसी तरह भी न लिखी गई , जबकि उच्चारण वही करना है ..तब मैनें इसे इस तरह लिखना ही मुनासिब समझा ...सभी टिप्पणी कर्ताओं का बहुत बहुत धन्यवाद ..

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  9. बुझा दिए खुद ही , अपने हाथों अरमानों के दिये
    कच्ची सीढ़ियाँ चढ़े थे , अपनी आँखों के रन्गीं सपने
    "diye" shabd kaa dohra istemaal bahut bha gaya!
    Gazal kee peshkash to hamesha kee tarah behtareen hai hee!

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  10. वफ़ा की राह में , बेकसी फूलों की देखो तो
    खिले हुए हैं आरजू-ए-चमन में , खुशबू नहीं साथ अपने

    वाह क्या कहने
    ------------
    क्यूँ झगडा होता है ?

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  11. गजल मेँ खूब रंग भरे , जमीँ पे उतरे सपने, पढ़कर गजल आपकी , मन मेँ जुग्नू से जलेँ। बहुत ही खूबसूरत गजल है । प्रत्येक शेर लाजबाव। बहुत-बहुत आभार जी। -: VISIT MY BLOG :- पढ़िये ब्लोग "Mind and body rearches" पर .....बढ़ती उम्र मेँ दृष्टिहीनता से कैसे बचेँ। इस लेख का लिँक है :- http://ashokbsr.blogspot.com

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  12. हम तेरे शहर से गुजरे , काफिला था साथ अपने
    होते हैं दगाबाज तो , कच्ची उम्र के रन्गीं सपने
    bahut hee khoobsurat line...bahut hee bhawuk gazal...badhayi

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  13. पहली बार आपका ब्लॉग देखा। मन को छू जाने वाली लेखनी पाई है। आपने मेरे ब्लॉग के लिए समय निकला, इसके लिए हार्दिक आभार।
    - रवींद्र

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  14. 5.5/10

    ताजगी लिए सुन्दर भावों से सजी ग़ज़ल

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  15. बुझा दिए खुद ही , अपने हाथों अरमानों के दिये
    कच्ची सीढ़ियाँ चढ़े थे , अपनी आँखों के रन्गीं सपने

    वफ़ा की राह में , बेकसी फूलों की देखो तो
    खिले हुए हैं आरजू-ए-चमन में , खुशबू नहीं साथ अपने
    वाह क्या खूब कहा। सुन्दर भाव । बधाई।

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  16. बढ़िया है...सुंदर भावपूर्ण रचना...धन्यवाद

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  17. "हम तेरे शहर से गुजरे , काफिला था साथ अपने
    होते हैं दगाबाज तो , कच्ची उम्र के रन्गीं सपने"

    वह क्या बात है.


    यश वैभव सम्मान में,करे निरंतर वृद्धि.
    दीवाली का पर्व ये , लाये सुख - समृद्धि.
    आपको और आपके परिवार को दीपावली की हार्दिक शुभकामनायें.
    मेरे ब्लॉग पर भी शुभकामनाओं सहित ग्रीटिंग हाज़िर है

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मैं भी औरों की तरह , खुशफहमियों का हूँ स्वागत करती
मेरे क़दमों में भी , यही तो हैं हौसलों का दम भरतीं