भारी भरकम लफ्जों की पढ़ाई भी नहीं , गीत गज़लों की गढ़ाई की तालीम भी नहीं , है उम्र की चाँदी और जज्बात के समन्दर की डुबकी, किस्मत लिखने वाले की मेहरबानी , जिन्दगी का सुरूर , चन्द लफ्जों की जुबानी...
रविवार, 11 दिसंबर 2011
यूँ तो हालात ने
जीने का शउर सिखाना था , कुछ इस अन्दाज़ में गुफ्तगू की है
कोई एक तो होता हमारा गम -गुसार
हाय नायाब सी शै की जुस्तज़ू की है
अपने जख्मों की परवाह किसे
उसकी आँख में आँसू , फिर कोई रफू की है
दुनिया नहीं होती सिर्फ बुरी ही बुरी
उसी दुनिया से किसी और ही दुनिया की आरज़ू की है
हमको मालूम नहीं राग क्या है रागिनी क्या है
काले सफ़ेद सुर ज़िन्दगी के , ताल देने को दू-ब-दू की है
यूँ तो हालात ने हमसे दिल्लगी की है
जीने का शउर सिखाना था , कुछ इस अन्दाज़ में गुफ्तगू की है
मंगलवार, 6 दिसंबर 2011
ख़म का पता
हसरतों की देहरी पर कोई फूल खिलेगा
क्यों नाराज होऊँ मैं इन्तज़ार की शब से
के अहले-सफ़र भी मुश्किल से कटेगा
स्याह अन्धेरे में किधर चलना है
सिम्तों का पता भी मुश्किल से मिलेगा
चलने को कोई बात भी चाहिए के
रौशनी को चरागे-दिल ही जलेगा
दम कितना है ख़्वाबों में क़दमों में
इस ख़म का पता भी सुबह ही चलेगा
शुक्रवार, 25 नवंबर 2011
सौगात
काँटों में उलझे तो , ज़मीं बचती ही नहीं है क़दमों तले
ज़िन्दादिली तो हिन्दी में भी छलकती है
ये वो भाषा है जो ज़रुरी है सीखने के लिये
बहुत चाहा कि लिखूँ खुशियों पर , हैरानियों पर
बेबसी , वीरानियों की सौगात हैं मेरी नज्में
है प्रीत जितनी गहरी , है टीस भी उतनी ही गहरी
जो चलाता है फूलों पर , वही छोड़ जाता है काँटों के बिस्तर कने
ज़िन्दगी जलाती है तो राख के ढेर में बचाती इतना
कलम कागज़ थमा कर , दुनिया भर को सुनाती अफ़साने अपने
रविवार, 20 नवंबर 2011
वक्त ने हमको चुना
चोट खाने के लिये
मंज़िलें और भी हैं
राह दिखाने के लिये
कौन जीता है भला
गम उठाने के लिये
वक़्त आड़ा ही सही
साथ बिताने के लिये
रफू करना कला है
जिन्दगी बचाने के लिये
उधड़ गए तो सिले
गले लगाने के लिये
हिला रहा है कोई
हमको जगाने के लिये
उठो , अहतराम कर लो
ताल मिलाने के लिये
शुक्रवार, 11 नवंबर 2011
अदब के शहर में ( लखनऊ के लिये )
अदब के शहर में अदब से पेश आइये
ये वो शहर है , अजनबी भी
लगता अपना सा ही , जान जाइए
मुहब्बतों में नहीं होता तेरा मेरा
सुकून दिल का पहचान जाइए
मन्जिल भी सबकी एक ही है
राहों का पता जान जाइए
वफ़ा की वादियों में चलना है
तहज़ीबे-इश्क पर परवान जाइए
गुलाबी रँगत है , तहज़ीबे गँगा-जमनी
झुका के सर कुर्बान जाइए
आए हैं सैर को नवाबों के शहर में
गुलाबों की तरह यूँ मुस्कुराइए
लगा के देखिये चेहरे पे दो इँच चौड़ी मुस्कान
जिगर में उतर कर , राह चलतों को अपना बनाइये
बुधवार, 2 नवंबर 2011
छाया का गिला है
नहीं मिला है
सुख की कोई
आधार शिला है
हर कोई तन्हा
बहुत हिला है
किस काँधे पर
आराम मिला है
चिन्गारी है
आग सिला है
धूप है हर सू
छाया का गिला है
दिल दहला और
मौसम खिला है
सदियों से सुख-दुख
का सिलसिला है
शुक्रवार, 21 अक्टूबर 2011
रँग होता तो बिखरता भी
रँग होता तो बिखरता भी
जुनूँ होता तो झलकता भी
आओ कोई तो बात करें
गुफ्तगू में वक्त गुजरता भी
नजदीकियों की कहें
करीब हो जो , झगड़ता भी
मजबूर है आदत से परिन्दा
आसमाँ का हाथ पकड़ता भी
आफ़ताब दूर सही
धरती पर कोई चमकता भी
बहाने लाख करे
पहलू में दिल धड़कता भी
रूप दुगना होता
इश्क मय सा छलकता भी
रँग होता तो बिखरता भी
जुनूँ होता तो झलकता भी
यहाँ सुन सकते हैं ....
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रविवार, 9 अक्टूबर 2011
अहसास की कहन
आड़े टेढ़े रास्ते पर चल कर सिर्फ मकरन्द कैसे हो
जिन्दगी फूलों सी भी हो सकती है
मगर काँटों की चुभन मन्द कैसे हो
अशआर पकड़ते हैं जब जब कलम
अहसास की कहन चन्द कैसे हो
दिया बुझे या जले दिले-नादाँ का
राख तले शोलों की अगन बन्द कैसे हो
गाने लगते हैं सुर में जब जब दर्द-औ-गम
इक सदा गूँजती है मगर दिल बुलन्द कैसे हो
फलसफे जिन्दगी के दिनों-दिन आते हैं समझ
छाले क़दमों तले जुबाँ पे मखमली पैबन्द कैसे हो
शुक्रवार, 23 सितंबर 2011
आहटें भी खिजाँ की
रँग चेहरे के यूँ ही नहीं पड़ते पीले , दिखाई देते हैं
बहार आई गई , पत्ता पत्ता बिछड़ा
बदल के बात जमीं से उखड़े दिखाई देते हैं
पकड़ के हाथ मीलों जो चले
बदले-बदले मिजाज ढीले-ढीले दिखाई देते हैं
बनी रहे तेरे चेहरे की चमक
तेरे मौसम दिल में उतरे दिखाई देते हैं
हमें तो आहटें भी खिजाँ की सुनाई देतीं हैं
रँग चेहरे के यूँ ही नहीं पड़ते पीले , दिखाई देते हैं
सोमवार, 12 सितंबर 2011
थोड़ी मेहरबानी रख लूँ
थोड़ी बदगुमानी रख लूँ
बड़ी धूप है ऐ दोस्त
थोड़ी मेहरबानी रख लूँ
भरम सारे मुकर गये देखो
चलने को जिन्दगानी रख लूँ
तमाम उम्र साथी ही तके
हादसे धोने को थोड़ा पानी रख लूँ
नूर के शामियाने कहाँ गये
वही चेहरे यादों की निगहबानी रख लूँ
गुरुवार, 1 सितंबर 2011
महिवाल जवाब माँगे
शुक्रवार, 19 अगस्त 2011
शबे-गम के इरादों की तरह जलो
शबे-गम के इरादों की तरह जलो
किसने देखी है सुबह
आफताब के वादों की तरह जलो
कतरा कतरा काम आये किसी के
किसी काँधे पे दिलासे की तरह जलो
लगा के तीली रौशन हो जाये
सुलगते हुए सवालों की तरह जलो
हवा आँधी तूफाँ तो आयेंगे
टक्कर के हौसलों की तरह जलो
मिट्टी की महक वाज़िब है
खुदाओं के शहर में मसीहों की तरह जलो
मंगलवार, 2 अगस्त 2011
कौन खुशियों का तलबगार नहीं
कौन खुशियों का तलबगार नहीं
दिल वो बस्ती है जो दिन रात सजा करती है
न कहना के है कोई खरीदार नहीं
तुम्हीं तो छोड़ गई हो ऐ जिन्दगी यहाँ मुझको
तुम्हें गुरेज है हमसे प्यार नहीं
बदल गए हैं मायने कितने ही
तन्हाई भी है क्या गमे-यार नहीं
कर लेते हम हालात से समझौता
जीत है ये भी , है अपनी हार नहीं
उसकी बातों में बला का जादू है
यूँ ही दुनिया का दारोमदार नहीं
सोमवार, 18 जुलाई 2011
पंख दिए हैं मगर किस से कहें
मुझे भी दिया है मगर कुछ कमी सी है
पंख दिए हैं मगर किस से कहें
क्यों परवाज़ में कोताही सी है
लम्हें सिर्फ टंगे नहीं हैं दीवारों पर
माहौल में कुछ गमी सी है
आदमी आदमी को पहचानता कब है
अलग अलग कोई जमीं सी है
हाल मौसम का ही अलापते रहे उम्र भर
इसी राग में ढली कोई ढपली सी है
खिजाओं में है कौन फलता फूलता
गमे यार है सीने में नमी सी है
आ गए अलफ़ाज़ जुबाँ पर छुपते छुपाते
कलम की हालत भी हमीं सी है
न करें सब्र तो क्या करें
जिन्दगी की ये शर्त भी कड़ी सी है
शुक्रवार, 1 जुलाई 2011
तेरे आने से
जिन्दगी साजे-ग़ज़ल हो जाये
जिन्दगी कड़वी नहीं मीठी सी
किन्हीं दुआओं का फल हो जाये
यूँ ही कहते नहीं आफताब तुम्हें
तेरी आँखों की चमक मेरा नूरे-महल हो जाये
जिन्दगी यूँ भी बहुत मुश्किल थी
तेरे आने से बहारों को खबर हो जाये
कैसे कह दूँ के है इन्तिज़ार नहीं
तेरी साँसों की महक जिन्दगी का सबब हो जाये
किसने देखा शम्मा को बूँद बूँद मिटते हुए
जल के परवाना अमर हो जाये
सोमवार, 20 जून 2011
जलना शम्मा को अपने ही दम पड़े
यूँ न रूठो खुद से इतना ,
के मनाने ज़िन्दगी भी आये तो कम पड़े
आयेंगे हर मोड़ पे इम्तिहाँ लेने को गम बड़े
ज़िन्दगी के ख़जाने में साँसें गिनती की
कितनी पास हैं कज़ा के ,कितनी दूर हम खड़े
ज़िन्दगी अमानत है खुदा की
गौर से देखो कितने अक्सों में हम जड़े
ये नहीं है के छाया कभी देखी न हो
मन ही पागल है के इसके हिस्से ही गम पड़े
चलती रहती है यूँ ही सारी दुनिया
सो गए हम तो क्या सूरज भी थम पड़े
एक धागे का साथ जरुरी है
जलना शम्मा को अपने ही दम पड़े
उठो , अहतराम कर लो ज़िन्दगी का
जश्न से गुजरे तो भूल जायेंगे ख़म बड़े
मंगलवार, 14 जून 2011
सब फ़ानी ही लगे
बारूद के ढेर पर कोई कहानी ही लगे
फूलों को बोना भी जरुर
काँटों में इनकी महक ज़िन्दगानी ही लगे
तोड़ कर तारे तो मैं ले आऊँ
जो मेरे हाथ कोई मेहरबानी ही लगे
न आए कोई तो क्या कीजे
दिल जलाना भी नादानी ही लगे
वक्त के हाथ हैं तुरुप के मोहरे
पत्तों की बाज़ी भी आसमानी ही लगे
भस्म कर देती है चिन्गारी भी
राख के ढेर तले आग पुरानी ही लगे
छाछ भी फूँक के ही पीता है
जले दूध के को सब फ़ानी ही लगे
शुक्रवार, 20 मई 2011
धूप छाया भी सुलगते ही मिले
इमारत के बुर्ज हिलते मिले
न गुजरें दिन न गुजरें रातें
हाथों से उम्र फिसलती मिले
या खुदा , आदमी का ऐसा भी मुकद्दर न लिख
गुजर जाए वक्त और आदमी खड़ा ही मिले
जीने के बहाने थोड़े मिले
मरने के बहाने बहुतेरे मिले
प्यास उम्रों से लगी है
धूप छाया भी सुलगते ही मिले
कुँए-तालाब , पेड़-पौधे
मौसम की राह तकते ही मिले
भला बताओ वो दोस्त कैसे हुए
फासले रख के जो दोस्तों से मिले
छिपी हैं वेदनाएँ ही संवेदनाओं में
इसीलिए हर कोई अक्सर हिलता ही मिले
शुक्रवार, 6 मई 2011
रुके रुके से दिन
रुके रुके से दिन परछाइयाँ चलती हुईं
धू-धू कर जल उठीं अमराइयाँ कितनी
स्कैच बना कर खुदा रँग भरना भूल गया
काले सफ़ेद वर्कों में रुसवाइयाँ कितनी
बहला रहे हैं खुद को आँकड़ों के खेल में
जिन्दगी की दौड़ में गहराइयाँ कितनी
सँकरे रास्ते भी देते हैं पता मंजिल का
चल चल कर बनती हैं पगडंडियाँ कितनी
अपनों के बिखर जाने से डर लगता है
भले ही दूर हों मगर हैं नजदीकियाँ कितनी
तगाफुल होते ही रहते हैं राहे इश्क में
बचे साबुत तो देखेंगे के हैं बरबादियाँ कितनी
साजिश में दुनिया की खुदा भी था शामिल
शिकायत कैसे करें , हैं उसकी मेहरबानियाँ कितनी
मंगलवार, 26 अप्रैल 2011
कैसे जिया जाता है
आ तुझे बता दूँ मैं , कि कैसे जिया जाता है
कैसे पलकों पे , सपनों को सिया जाता है
रुसवाई कैसी भी हो , जीवन से नहीं बढ़ कर है
लम्हे लम्हे को पी कर के , उत्सव को जिया जाता है
रूठे खुद से हो , सपनों की दुहाई देते हो
चाहत के रेशमी धागों से , जख्मों को सिया जाता है
जोश और जुनूनों को , किनारों का पहनावा दे कर
रँग और नूर की बरसातों से , खुशबू को पिया जाता है
आ तुझे बता दूँ मैं , कि कैसे जिया जाता है
कैसे पलकों पे , सपनों को सिया जाता है
गुरुवार, 14 अप्रैल 2011
कोई अब तक खड़ा है
तुम्हारा इन्तिज़ार अब तक हरा है
सूखी नहीं हैं टहनियाँ कोई अब तक खड़ा है
मौसम कई आए गए किसको पता
कोई अब तक तन्हा बड़ा है
मत बताना नहीं आयेगी कोई चिट्ठी
इतनी सी खबर में भी तूफ़ान बड़ा है
लम्हा लम्हा रौशन हैं बहारें देखो
ज़िन्दगी ये भी तेरा अहसान बड़ा है
चन्दा भी रातों को जगा है
रोज घटता बढ़ता अरमान बड़ा है
कोपलें खिल न सकीं मौसम की मेहरबानी से
धरती के सीने में अहसास बड़ा है
वफ़ा ज़फ़ा एक ही सिक्के के दो पहलू
सगा नहीं है कोई फिर भी विष्वास बड़ा है
टंगा हुआ है कोई आसमाँ के पहलू में
वजह कोई न थी तो क्यूँ किस्मत से लड़ा है
गुरुवार, 31 मार्च 2011
आशिक का ही मुहँ देखा किये
शेरों और गजलों में हम जिन्दा रहे
हर कदम पर खाई थी रुसवाई थी
गिर गिर कर उठे हम डूबते उतराते रहे
जवाकुसुमों का अपना क्या रँग और क्या है महक
अपनी खुशबू से बेखबर उड़ते रहे खोते रहे
बेलों का अपना है क्या वजूद
तनों से लिपटे रहे सहारे को लड़खड़ाते रहे
उसके चेहरे का रँग ही सजता रहा
अपनी तन्हाईयों से हम घबराते रहे
जिन्दगी भर आशिक का ही मुहँ देखा किये
शेरों और गजलों में हम जिन्दा रहे
यहाँ क्लिक कर के मेरी आवाज में सुन सकते हैं .....
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शुक्रवार, 25 मार्च 2011
सिपह-सालार नहीं हिलता
गैर के खेमे में
अपना कोई वश नहीं चलता
हजार बातेँ हैं
दिल कहीं नहीं लगता
नन्हा कोई पौधा
मिट्टी की कोख में पलता
अच्छे होने की निशानी क्या है
साथ कोई नहीं चलता
साथ चलने से दब जाएगा वजूद
अना का कोई किनारा नहीं मिलता
इम्तिहान है ज़िन्दगी
नतीजा कुछ भी मिलता
हौसला है तो जँग जीती सी
इसी दम पे सिपह-सालार नहीं हिलता
बुधवार, 16 मार्च 2011
मनुवा की समझो बोली है
होली है होली है , रँगों की हमजोली है
ढोल नगाड़े मस्त बजाओ , मनुवा की समझो बोली है
टेसू फूले फागुन बोले , अमुवा के बौरों से खेले
रँगों की चादर ओढ़ाओ , ऋतुओं की आई डोली है
रँग गुलाल है होली का , और दुलार है गालों का
भीगा आँचल भीगा तन मन , भीगा लहँगा चोली है
हाथ रँगे है रँगा है जीवन , रस से देखो पगा है जीवन
एक दुकान है मीठे की , साली भी मुहँ-बोली है
देवर-भाभी साली-जीजा , रिश्ते-नाते प्यार भरे
सखी सहेली यार मिले , बात-बात में हँसी-ठिठोली है
गीत प्रीत की धुन पर नाचो , साँसों की सरगम पर नाचो
हाथ पकड़ कर दम भर नाचो , आई मस्तों की टोली है
होली है होली है , रँगों की हमजोली है
ढोल नगाड़े मस्त बजाओ , मनुवा की समझो बोली है
बुधवार, 2 मार्च 2011
ऐसे उठते हैं लोग दिलों से
इस मेज से उठ कर , उस मेज पे जा बैठे हों
कब लगती है देर परिन्दों को उड़ने में
आसमान की बाहें हैं , साथी मगर चुप बैठे हैं
पल-लम्हें सब दम साधे हैं , कैसे बोलें
शोर भरे जब दूर दूर से , मन बैठे हों
कैसे कह दें महज इत्तफाक है जिन्दगी
कभी किस्मत का इन्साफ कभी मर्जी का सिला ले बैठे हैं
मंगलवार, 8 फ़रवरी 2011
लय लागी है किस से अन्दर
लाख सीपियाँ मोती अन्दर
फिर भी प्यासा क्यों है समन्दर
अपने जैसा ढूँढ रहा है
नट है या फिर कोई बन्दर
मत भोंको सीने में खन्जर
टूटे लम्हे , रूठा पिन्जर
कितनी बातेँ बदल गईं हैं
कहाँ रुका है कोई मन्जर
कौन मुक्कद्दर का है सिकन्दर
क्या तुमने देखा न कलन्दर
बेगाना सा इस दुनिया से
लय लागी है किस से अन्दर
रविवार, 30 जनवरी 2011
मिट्टी हूँ , ख़्वाबों में महक जाऊँगी
कच्ची मिट्टी हूँ , तराश लो
प्याला-ए-मीना या सागरो-सुराही की तरह
अजब सी बात है , उदास है जो पीता है
रंज का जश्न मनाने की तरह
बात सीधी सी है , चाहिए बस एक नजर
रहमत की इनायत की तरह
बूँद वही चखने को , वक्त रुका बैठा है
शबे-गम की ठहरी हुई सहर की तरह
ज़र्रा-ज़र्रा उधड़ गया अपना
इक नई शक्ल में ढलने की तरह
मिट्टी हूँ , ख़्वाबों में महक जाऊँगी
बचपन के नन्हें घरौंदों की तरह
बुधवार, 19 जनवरी 2011
रग-रग में धूप समाई न
आ बैठे निशाँ भी चेहरे पर
रग-रग में धूप समाई न
हम वादा कर के भूल गए
खुद से भी हुई समाई न
क्यूँ जाते हैं उन गलियों में
पीछे छूटीं , हुईं पराई न
ठहरा है सूरज सर पर ही
चन्दा की बारी आई न
सरकी न धूप , रुका मन्जर
आशा से हुई सगाई न
न कोई नींद , न कोई छलाँग
पुल सी कोई भरपाई न
दर्द है तो है गमे-तन्हाई भी
काँटें हैं ! क्या पैर में बिवाई न
सोमवार, 3 जनवरी 2011
इस साहिल तक आन
अमिताभ बच्चन इस सदी के सिनेमा के महानायक , शाहरुख़ खान भी इसी कड़ी में हैं , ये तो वक्त की मुट्ठी में है किस किस को शोहरत देगा । मेरे आसपास समाज में इसी सदी के नायक मिस्टर एस.पी.रावल , जिनके लिये मैंने ये कविता या कहिये ..गीत रचा , भाव जैसे ही संवेदनाएँ बनते हैं , उन्हें कविता में ढलते देर नहीं लगती ।
Mr.S.P.Rawal –Ex. Vice President Gestetner India Ltd.
Chairman Open Futures
Dr. Sujata Singh (daughter) –M.S.Phd Senior Scientist Singapore
Dr.Ranbir Singh(son-in-law) – M.S.Phd. patent to his name , Director South East Asia in one of the leading I.T. company Singapore
Dr. Avantika Nath (daughter) – Medical Director Dental in city of Sanfransisco
Dr.Rajneesh Nath (son-in-law)- M.D.Oncologist Ex. Senior Director Johnson & Johnson
Dr. Savita Singh (daughter) – M.S. Opthomology & M.D. Reumatology , owns clinic in Philedelphia
Mr. Neeraj Singh (son-in-law) – B.E. & M.B.A. Finance , Million Dollar Round Table member
Mr. Sanjay Rawal (son) – B. Com . Honours , C.O. Open Futures
Mrs. Kamakshi Rawal ( daughter-in-law) – B.A., L.L.B.
उनकी उपलब्धियों के बारे में ज्यादा न कुछ कहूंगी , हाँ २१ साल पहले उन्हें छोड़ कर इस दुनिया को अलविदा कह गईं अपनी दीदी का जिक्र इस गीत में कैसे न करूँ ? उनके अपने व्यक्तित्व और बच्चों की तरक्की की तह में उस त्यागमई स्नेहमई मूर्ति का कितना बड़ा योगदान है , ये बिना कहे भी सब जानते हैं । ३० दिसम्बर २०१० को जीजा जी के ७०वें जन्मदिन पर , जब उनकी बेटियों ने सिंगापुर अमेरिका से आ कर ,भारत में रह रहे अपने भाई भाभी के साथ मिल कर एक आकस्मिक पार्टी आयोजित की , ये गीत मैंने उसी उपलक्ष्य में रचा और कहा ...डा. अवंतिका यानि सरिता ने कमाल का प्रोग्राम एंकर किया और गुलदस्ते के सारे फूलों ने कमाल की मेजबानी की . ...
आया है महफ़िल में कोई , बन के सदी की पहचान
और आया है बन कर के , इस महफ़िल की शान
कोई कहे वो साथी मेरा , कोई कहे वो मेरी शान
अपना अपना रिश्ता ढूँढें , ऐसी है पहचान
सूरज चन्दा रुक कर देखें , उनसा ही कोई राही है
धरती पर उतरा है जो , सबको अपना मान
होते हैं इम्तिहाँ इंसाँ के ही , छोड़ जाएँ जब साथी भी
मिसाल बनी है हिम्मत ही , ले आई जो इस साहिल तक आन
प्रेरणा देता उजला चेहरा , देखो कैसी आन और शान
राहें चुप हैं बोल उठे हैं , देखो पीछे पीछे निशान
मिल बैठे हैं , सँजय , सुजाता , सरिता , सविता
कामाक्षी ,तेजस्वी और ध्रुव ; रनधीर ,रजनीश ,नीरज और
सेजल ,रोहन , रूही , रिया , रवीना ; मानव और वरुन
शुरू उसी से होकर देखो , गुलदस्ते की शान
आया है महफ़िल में कोई , बन के सदी की पहचान
और आया है बन कर के , इस महफ़िल की शान