सैलाब कहाँ बहता है , किनारे समेट के सिम्तों में
बाँधो बाँधो टुकडों में , हवा और आँधियों को
कर लो तुम क़ैद गुबार, धुँए और लपटों को
सरहद बाँधे इन्सानों को , मजहब बाँधे भगवानों को
इश्क की कोई जात नहीं होती , कब बंधता है ये जुबानों में
कभी सजता है बहरूपिये सा , गीतों गजलों की महफ़िल में
भारी पड़ती कायनात पे वो , जो हूक सी उठती है दिल से
पीड़ा कब पढ़ आई हिज्जे , गीत , बहर और काफिये के
सदियों ने पाला है इसको , चढ़ बैठी जो ये हाशिये पे
behatareen/lajawaab.
जवाब देंहटाएंहृदय-भाव जैसा रहे लिखना वैसा फर्ज।
जवाब देंहटाएंहिज्जे भी गर ठीक हों इसमें है क्या हर्ज?
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
बेहद अर्थपूर्ण रचना लगी। बहुत-बहुत बधाई
जवाब देंहटाएंसुन्दर नवगीत है।
जवाब देंहटाएंबधाई!
सही कहा है आपने...बहुत सुन्दर सार्थक रचना...
जवाब देंहटाएंनीरज
सरहद बाँधे इन्सानों को , मजहब बाँधे भगवानों को
जवाब देंहटाएंइश्क की कोई जात नहीं होती , कब बंधता है ये जुबानों में
mn ke sundar aur paakezaa jazbaat ko
bahut prabhaavshali rachnaa meiN
prastut kiyaa hai
kaavya-lekhan meiN saksham hain aap
badhaaee .
शानदार.सोच ....
जवाब देंहटाएंकुछ कहने की गुस्ताखी झिजकते हुए कर रहा हूं....गर पीडा की जगह तकलीफ का इस्तेमाल हो तो....?