शुक्रवार, 6 नवंबर 2009

पीड़ा कब पढ़ आई हिज्जे

अपनी पीड़ा को बाँधोगे ,सँगीत ,बहर और काफिये में
सैलाब कहाँ बहता है , किनारे समेट के सिम्तों में

बाँधो बाँधो टुकडों में , हवा और आँधियों को
कर लो तुम क़ैद गुबार, धुँए और लपटों को


सरहद बाँधे इन्सानों को , मजहब बाँधे भगवानों को
इश्क की कोई जात नहीं होती , कब बंधता है ये जुबानों में


कभी सजता है बहरूपिये सा , गीतों गजलों की महफ़िल में
भारी पड़ती कायनात पे वो , जो हूक सी उठती है दिल से


पीड़ा कब पढ़ आई हिज्जे , गीत , बहर और काफिये के
सदियों ने पाला है इसको , चढ़ बैठी जो ये हाशिये पे

7 टिप्‍पणियां:

Yogesh Verma Swapn ने कहा…

behatareen/lajawaab.

श्यामल सुमन ने कहा…

हृदय-भाव जैसा रहे लिखना वैसा फर्ज।
हिज्जे भी गर ठीक हों इसमें है क्या हर्ज?

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com

Mithilesh dubey ने कहा…

बेहद अर्थपूर्ण रचना लगी। बहुत-बहुत बधाई

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

सुन्दर नवगीत है।
बधाई!

नीरज गोस्वामी ने कहा…

सही कहा है आपने...बहुत सुन्दर सार्थक रचना...
नीरज

daanish ने कहा…

सरहद बाँधे इन्सानों को , मजहब बाँधे भगवानों को
इश्क की कोई जात नहीं होती , कब बंधता है ये जुबानों में

mn ke sundar aur paakezaa jazbaat ko
bahut prabhaavshali rachnaa meiN
prastut kiyaa hai
kaavya-lekhan meiN saksham hain aap
badhaaee .

डॉ .अनुराग ने कहा…

शानदार.सोच ....
कुछ कहने की गुस्ताखी झिजकते हुए कर रहा हूं....गर पीडा की जगह तकलीफ का इस्तेमाल हो तो....?