सोमवार, 22 अक्टूबर 2012

लगता तो नहीं था

लगता तो नहीं था कि जी पायेंगे तेरे बिन 
खिले हुए हैं मगर किसी जख्मे-आरज़ू की तरह 

साथी समाँ सामाँ सब फीके हैं 
बिन तेरे काँधे फुसलाये हुए हैं बहानों की तरह 

कितना जी चुरायें यादों से 
ये हमें देखतीं हैं मासूम सवालों की तरह 

तलाशती हैं मेरी आँखें वही अपनापन 
खो गया जो भीड़ के रेले में किसी साथी की तरह 

दूर तो नहीं गये हो तुम भी 
मगर खो गये हो ज़िन्दगी की दौड़ में बचपन की तरह 

लगता तो नहीं था कि जी पायेंगे तेरे बिन 
खिले हुए हैं मगर किसी जख्मे-आरज़ू की तरह 

रविवार, 14 अक्टूबर 2012

कोई तारा नहीं

कोई तारा नहीं , जुगनू भी नहीं 
हसरतों की आँख मिचोली भी नहीं 

अँधेरी रात में क्या क्या खोया 
बूझने को पहेली भी नहीं 

हाथ को हाथ न सूझे जो 
शबे-ग़म में कोई सहेली भी नहीं 

तुम आ जाते तो अच्छा था 
ख़्वाबों की कोई रँगोली भी नहीं 

ज़िन्दगी मिट्टी का ढेर नहीं महज़ 
फूँकना जान कोई ठिठोली भी नहीं 

सो लेते हम भी घड़ी दो घड़ी 
दिल की लगी है ,चैन की बोली भी नहीं 

रविवार, 7 अक्टूबर 2012

किसी दोस्त सा चेहरा

वो मिरे साथ चल तो सकता था 
दिल में चाह ने सताया नहीं होगा उतना 

वो मेरी खामियाँ ही निकालता रहा 
मेरे जज़्बे को नहीं देख पाया होगा उतना 

हम अपने हाल को गीतों में ढालते रहे 
ये अश्कों का सफ़र नहीं सता पाया होगा उतना 

जाने ज़िन्दगी क्या माँगती है 
रूह को कौन समझ पाया होगा उतना 

वो मुझे बहुत कुछ दे तो सकता था 
किसी दोस्त सा चेहरा मुझ में नहीं देख पाया होगा उतना