मंगलवार, 14 दिसंबर 2010

हिसाब काँटों का चुकाने

छिड़ी जो बात , जख्म छेड़ गया कोई
यादों की हवाओं का रुख मोड़ गया कोई

वक्त ने अपना काम किया बखूबी तो मगर
गुजरे ज़माने की वही बात , सिरहाने छोड़ गया कोई

बिखर के सिमटे तो खुद से भी नजर चुराते ही रहे
बचे-खुचे को फिर पलट कर , उसी मुहाने छोड़ गया कोई

पीले पन्नों में गुलाबों के बहाने आ कर
हिसाब काँटों का चुकाने , सताने छोड़ गया कोई

मन के पानी पर अक्स मिटते ही नहीं
मार के कंकड़ लहरों का , शोर सुनाने छोड़ गया कोई


मैं जानती हूँ कि ये निराशा है , मगर जब गम तरन्नुम में गाने लगे तो मायूसी कहाँ बची ? यानि गम स्वीकार करते ही हम सहज होने लगते हैं , और हलचल भी तो जीवन का ही लक्षण है ।


तब न थी हाथों में कलम
जब था जहाँ अपना भी गुलशन
इसी वीराने ने थमाई है कलम

जाने हम क्या क्या लिख दें
शान में तेरी ऐ जिन्दगी
तुम लौट के आओ तो सही ...

गुरुवार, 9 दिसंबर 2010

सोच के दीप जला कर देखो


दूर गगन में जा कर देखो

सोच के दीप जला कर देखो


चन्दा तो उतना ही हँसी है

जितने पँख लगा कर देखो


उडती पतंगें मौजों सी ही

गीत सुहाने गा कर देखो


जीवन आनी जानी शय है

कोई तो अलख जगा कर देखो


रुत बदले , मिजाज भी बदले

वक्त से ताल मिला कर देखो


मरघट सी सूनी ख़ामोशी

क़ैद से बाहर कर देखो


बच्चे बूढ़े जवाँ हो जाते

आस का फूल खिला कर देखो


घर भर को रौशन कर देता

एक दिया ही जला कर देखो

मंगलवार, 23 नवंबर 2010

क्यूँ कोई सुखनवर न हुआ


दिल तो भरा है बहुत
बोला मगर कुछ भी न गया

आहटें सुनीं तो बहुत
मुड़ के देखा न गया

क़ैद में कौन हुआ
फासला जो मिटाया न गया

सूरज तो उगा
मेरे घर में दिन न हुआ

नब्ज तो देखी बहुत उजाले की
रोग का इल्म न हुआ

जिन्दगी दोस्त है तो
क्यूँ कोई सुखनवर न हुआ

वायदा खुद से कर के भूल गए
वो गया तो क्या क्या न हुआ

गुरुवार, 11 नवंबर 2010

तंग थी दिल की गली

कैसे आई ये खिजाँ , दिल्लगी होती रही
तंग थी दिल की गली , रौशनी होती रही

करता है जर्रे को खुदा , इश्क की फितरत रही
दिल से उतरे बिखरे जमीं पर , दिल की लगी रोती रही

है तन्हाई दोनों तरफ , अजब ये किस्मत रही
पास हो या दूर दिलबर , रुसवाई ही होती रही

साथ चलते चार दिन जो , पर दिलों में वहशत रही
लौट कर आए नहीं , जेहन दिन वही ढोती रही

कैसे आई ये खिजाँ , दिल्लगी होती रही
तंग थी दिल की गली , रौशनी होती रही

गुरुवार, 4 नवंबर 2010

मनों अँधेरा खदेड़ते नन्हें से चिराग

चरागों से सीखें जलने का सबक़
दिलों के बुझने का भी तो सबब जानें

ये जल तो लेते हैं एक दूसरे से
अन्धेरा अपनी तली का न पहचानें

परवाह करते हैं सिर्फ अपनी ही नमी की
दूसरा चुक रहा है ये हैं अन्जाने

चरागे-दिल से रौशन होती दुनिया
स्याह रातों का खुदा ही जाने

कितनी आँखों में बुझ बुझ जला है जो
वो आरती का दिया दुनिया माने

मनों अँधेरा खदेड़ते नन्हें से चिराग
दिवाली की रात पूनम सी इतराती जानें

बुधवार, 27 अक्टूबर 2010

हम तेरे शहर से गुजरे

हम तेरे शहर से गुजरे , काफिला था साथ अपने
होते हैं दगाबाज तो , कच्ची उम्र के रंगी सपने 

खेल कर तुम तो गये , मन्जर हो गये हैं खड़े
चल रहे हैं गाफिल सी बहर में , यादों में सँग-सँग अपने

कुसूर कोई तो होता , टीस सी लिये दिल में
चिन्गारी दामन में लिये , यादों की हवाएँ थीं साथ अपने

बुझा दिए खुद ही , अपने हाथों अरमानों के दिये
कच्ची सीढ़ियाँ चढ़े थे , अपनी आँखों के रंगी सपने 

वफ़ा की राह में , बेकसी फूलों की देखो तो
खिले हुए हैं आरजू-ए-चमन में , खुशबू नहीं साथ अपने

गुरुवार, 21 अक्टूबर 2010

नहीं इसका नाम !


हर आहट को समझा उसका पैगाम
हर मन्जर को किया मैंने सलाम

कितने ही पिये उम्मीद के जाम
कैसी है आहट , कैसे अन्जाम

अँगना में ठहरी है वो ही शाम
कोई सुबह क्या नहीं मेरे नाम

चलता है वही जो हमको थाम
वही अपनी डोरी वही गुलफाम

रँग देखे दुनिया के अजब अनाम
ख़्वाबों-ख्यालों की दुनिया तो ...नहीं इसका नाम , नहीं इसका नाम !

सोमवार, 11 अक्टूबर 2010

कितने साबुत और बचा क्या

चन्दा तेरा रूप पिऊँ क्या
दूर तू है तेरा साथ जिऊँ क्या

तू तन्हा दिन रात चला है
तेरी पीड़ है मुझसे जुदा क्या

मेरी आँख का आँसू चुप है
और भला खामोश सदा क्या

साथ साथ चलते हैं हम तुम
कितने साबुत और बचा क्या

तेरी मुसाफिरी बनी रहे
मेरा क्या है माँगूं क्या

मेरे गीतों में तू ही तू
ऐसा अपना नेह है क्या

दूर से दिखते मिलते हुए
धरती-अम्बर कभी मिले हैं क्या

पी लूँ चाँदनी चुल्लू भर
सफ़र में थोड़ा आराम क्या

सहराँ भी ले लेता दम-ख़म
तू भी बता, तेरी मर्जी क्या

मेरी आवाज में सुन सकते हैं _
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सोमवार, 4 अक्टूबर 2010

हसरतों की देहरी पर

हसरतों की देहरी पर तुम
पाँव रखना सोच कर


है कहाँ आसान इतना
आना अपना लौट कर


है बहुत मगरूर इंसाँ
दिल लगाना सोच कर


लग गया जो दिल तो फिर
निभाना सीना ठोक कर


बेवफा निकलें जो सपनें
ये भी रखना सोच कर


होगा कहाँ अपना ठिकाना
खुद को पूछो रोक कर


मन्जर भी हैं मंजिल ही
देखो तो ये सोच कर


सफ़र के सजदे में तुम
सिर झुकाना , माथा ठोक कर

रविवार, 26 सितंबर 2010

इतना चुप हो जाऊँ

इतना चुप हो जाऊँ
कि बुत हो जाऊँ

तराशे गए हैं अक्स भी
मैं भी सो जाऊँ

सर्द आहों से पलट
जमाने की हवा हो जाऊँ

रूह को छू ले जो
रकीबों सी दुआ हो जाऊँ

कब बदलता है कोई
मैं ही काफिर हो जाऊँ

दर्द किसको नहीं होता
जुदा जिस्मो-जाँ हो जाऊँ

मंगलवार, 21 सितंबर 2010

क्या-क्या पास हमारे निकले


कोई शुबहा कहीं नहीं है
रात हुई और तारे निकले

अरमाँ की गलियों में यूँ ही
हम अपना दिल हारे निकले

कोई मंजिल कहीं नहीं है
टूट के बिखरे सितारे निकले

बाँध सके जो हमको देखो
झूठे सारे सहारे निकले

अपनी चादर में फूलों के
काँटों से ही धारे निकले

डूबें कैसे बीच भँवर में
दूर बहुत ही किनारे निकले

उँगली पकड़ेंगे वो अपनी
ऐतबार के मारे निकले

पराई धड़कन , पराई साँसें
क्या-क्या पास हमारे निकले

सोमवार, 13 सितंबर 2010

दम बड़ा लगता है


इसे जरा ' प्यार का पहला ख़त लिखने में वक्त तो लगता है ' की तर्ज पर गुनगुनाएँ ...


उधड़े रिश्ते सिलने में वक्त तो लगता है
बिखरे तिनके चुनने में वक्त तो लगता है

उलझ गए हैं मन के धागे
सुलझाने में , रेशमी गाँठें फिर खुलने में वक्त तो लगता है
बिखरे तिनके चुनने में वक्त तो लगता है

बिखर गए जो अरमाँ अपने
उजड़ी बस्ती , वीराने को फिर बसने में वक्त तो लगता है
बिखरे तिनके चुनने में वक्त तो लगता है

प्यार का पहला ख़त ये नहीं है
बिखरी उमंगें , फिर चुनने में दम बड़ा लगता है
बिखरे तिनके चुनने में वक्त तो लगता है

उधड़े रिश्ते सिलने में वक्त तो लगता है
बिखरे तिनके चुनने में वक्त तो लगता है

रविवार, 5 सितंबर 2010

छूटे न अपनी आस का झाला

चुक जाये जब सब्र का प्याला
कैसे मैं पी लूँ फिर हाला


यहाँ नहीं है कोई मीरा
और नहीं है कृष्ण रखवाला


दुख की रात बहुत लम्बी है
और पड़ा है जुबाँ पे ताला


किसने अपना धर्म है छोड़ा
सूरज ,चन्दा ,गगन मतवाला


हम भी आये हैं मन रँग कर
और ओढ़ कर एक दुशाला


जोग ,रोग ,सोग भोग कर
छूटे न अपनी आस का झाला


प्यास सभी को उसी घूँट की
जैसे जीवन हो मधुशाला

शनिवार, 28 अगस्त 2010

जब भी लय छूटे

टूटती है लय तो होती है धमक
ताल मिलाती लय भी चलेगी कब तक

हड्डियों में रच बस गया है जो
धुआँ वजूद का हिस्सा है तपेगा कब तक

तन ने कहा ही नहीं मन ने जिया जिसको
कलम के जिम्मे ये सफ़र बतलाओ कब तक

हदें मिटती हैं तो सरहदें टूटती हैं
खानाबदोशों की तरह गम खायेगा कब तक

खुशबुएँ दूर से ही लगतीं अच्छी
ख्यालों में तितलियों को पकड़ पायेगा कब तक

तान टूटे जब भी लय छूटे
जिन्दगी गीत है हर हाल में मुस्कराएगा कब तक


कलम की जगह किसी किसी के लिये अश्कों के जिम्मे भी हो सकता है ये सफ़र !

गुरुवार, 19 अगस्त 2010

चुप से दिखाने के लिये

कर रहा इन्कार आँसू भी , आँख में आने के लिये
चुक गया दरिया भी , आतिशे-गम बुझाने के लिये

हो गये हैं ढीठ से , चुप से दिखाने के लिये
मार कर पत्थर तो देखो , हमको हिलाने के लिये

सैय्याद ने ले लिये पर , गिरवी दिखाने के लिये
उम्मीद पर चलते रहो , बेपरों के हौसले आजमाने के लिये

रख छोड़े थे ताक पर , कितने ही नगमे भुलाने के लिये
पिटारी खोल कर बैठे हैं , वही लम्हे भुनाने के लिये 

लौट आये हैं वही दिन रात , हमको सताने के लिये
पुराने फिर वही किस्से , दिले-नादाँ दुखाने के लिये

घड़ों पानी तो डाला था , जख्मे-दिल सहलाने के लिये
गढ़े मुर्दे छेड़े किसने , चिंगारी यूँ सुलगाने के लिये

शुक्रवार, 13 अगस्त 2010

कदम जमा जमा कर

रेत पर चल रहे हैं कदम जमा जमा कर
न जाने कौन सी लहर हो तूफाँ से हाथ मिलाये हुए

किसी को पँख मिले हैं परवाज़ के लिये
किन्हीं क़दमों को सरकने की गर्मी भी न नसीब हुए

कोई चढ़ रहा है कामयाबी की सीढ़ियाँ
कोई दामन में है बिखरे अहसास सम्भाले हुए

कहीं जमीन कम , है कहीं आसमान कम
इसी हेरफेर में जाने कितने हैं धराशाई हुए

हवाएँ हैं , चिराग है , है नमी कम
सूखे में हौसले भी हैं भरमाये हुए

जाने वो कौन सी सहर है या लहर
बीच भँवर में कश्ती को आजमाये हुए








बुधवार, 4 अगस्त 2010

ख्याल जिन्दा है

बुत बने बैठे हैं मगर जिन्दा हैं
झाँक के देखा है अन्दर कोई शर्मिन्दा है

भलमन-साहत को नासमझी समझ लेते हैं लोग
भटकना मुश्किल है जमीर जिन्दा है

उठ गया कारवाँ साथ हसरतों के ही
सो गया सब कुछ गुबार जिन्दा है

घड़ी की तरह चलती हैं धडकनें
रुकी नहीं हैं सामान जिन्दा है

मन्दिर-मस्जिद भी गए , वो बोलता ही नहीं
ज़माने में मगर उसका करम जिन्दा है

कहाँ से लाऊँ बुतों की बस्ती में खुदा
तलाश जारी है , ख्याल जिन्दा है

गुरुवार, 29 जुलाई 2010

घर से मन्दिर की दूरी

घर से मस्जिद है बहुत दूर , चलो कुछ यूँ कर लें
चन्द रोते हुए बच्चों को हँसाया जाये
कुछ इसी तर्ज़ पर ( यूँ तो बहुत चुप रहती हूँ मैं , मगर मेरी लेखनी को सच बोलने की बीमारी है ) । .......

घर से मन्दिर की दूरी तय कर लें
चलो आज किसी का भी दिल न दुखायें

कर्म बन जाते हैं पूजा ही
जो किसी किस्मत को सँवार आयें

न फुर्सत है न चाहत ही है
कभी खुद से भी मिल आयें

भीड़ में भी तन्हा ही हैं
चन्द लम्हें किसी को सुन आयें

कितना बोलती है ये , चलो
यादों की गठरी को कहीं छोड़ आयें

रविवार, 18 जुलाई 2010

साँस-साँस दुआ ही हो

कितनी ही टिप्पणियाँ और कितनी ही रचनाएं पढ़ी जाने के बाद नई रचनाओं का जन्म होता है । निचली पोस्ट ' सखी सी ही ' पर पहली टिप्पणी क्षमा जी की , उन्होंने लिखा कि किसी की लिखी हुई ये पंक्तियाँ याद आ गईं ।
हर रूह में इक गम छुपा लगे है मुझे
ज़िन्दगी तू इक बद-दुआ-सी लगे है मुझे

बस यहीं से जन्म हुआ इन पंक्तियों का

गम लाख हों सीने में मगर जिन्दगी बददुआ न हो
कडवे घूँट पीकर भी , साँस-साँस दुआ ही हो

बड़े जतनों से माली ने पाला हो जिसे
वो नाजुक सी बेलें फूलों की हमनवाँ ही हों

नीम के पेड़ पर चढ़ कर भूले अपना भी पता
रास आया तो नहीं खिली हुई मगर वफ़ा ही हो

हवाओं में बिखर या खुशबू से लिपट
दूर फ़िज़ाओं में बुलाता हुआ वो अपना पिया ही हो

सैलाब को मोड़ें तो सीँचे हर कोई
खेत-खलिहानों में उगती हुई फसल नगमा ही हो

सोमवार, 5 जुलाई 2010

सखी सी ही

वक़्त का चेहरा भी है पहचाना हुआ
जिन्दगी तू भी है सखी सी ही


छलकती हो चाहे जिन्दगी कितनी
नजर में है चाहत की कमी सी ही

गले लगाऊँ किसे और रूठूँ किस से
हर आँख दूसरी में है नमी सी ही

कल के हिस्से का हमें आज नहीं मिलना है
वक़्त के हाथ में है खुदाई सी ही

मंगलवार, 22 जून 2010

जीते जी सर से

छन गया जीवन भी वक़्त की ही तरह
अपने हाथों से सँभाला न गया

मिट गए दुनिया की खातिर
मगर तन्हाई का निवाला न गया

स्याह रातों में दिल जला कर ही सही
राह से उम्मीद का उजाला न गया

अपनी दुनिया भी अजब सलमे-सितारों है जड़ी
जीते जी सर से दुशाला न गया

दुहाई दे दे कर कहते रहे
खुद के होने का हवाला न गया

शनिवार, 12 जून 2010

वक़्त से हाथ मिला लिया

हिन्दयुग्म से बैरंग लौटी मेरी रचना ,...

जीने की आरजू ने हर गम भुला दिया
रोये बहुत थे हम मगर , चाहत को सुला दिया

भारी पड़ता है इश्क तो गमे-रोज़गार पर
न हवा निवाला बनती , क्या पी के जी रहते
उतरे जो हम जमीं पर , टुकड़ों ने सिला दिया
जीने की आरजू ने हर गम भुला दिया

दबी सी हैं चिंगारियाँ कुछ राख के तले
न हवा कभी चलती , न कभी वो लपटें उठतीं
होती जो कभी आहट , उसने ही क्या कुछ हिला दिया
जीने की आरजू ने हर गम भुला दिया

अश्कों में ढला गम तो गीतों में सज गया
जब कुछ न रहा बाकी , तो कुछ बन के आ गया
लो इसने आज भी , जीने की वजह से मिला दिया
जीने की आरजू ने हर गम भुला दिया

ढूँढा बहुत तुझे ऐ दोस्त अपनों के लग गले
तुझे कुछ सुनाई नहीं देता , तन्हाई में भी कितना शोर पले
मर्जी उसकी है , वक़्त से हाथ मिला लिया
जीने की आरजू ने हर गम भुला दिया

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मंगलवार, 8 जून 2010

' गर , लेकिन ' ( if n buts )

खुरदरे सफ़र ने मिटा दिए ' गर , लेकिन '
चिकनी सतह पर नहीं टिकता कुछ भी

ज़िन्दगी तेज चली खुशनुमा सफ़र में तो
भारी वक़्त जैसे रेंग कर रुक गया हो अभी

सारी साजिशें हैं मिट्टी में मिला देने की
कुछ बच रहूँ तो निशाँ बोलें कभी

फ़ना होता है जब भी कोई
जादुई से टुकड़े बोल उठते हैं सभी

गुजर गया कारवाँ तो
धडकनों का सबब बाकी अभी

सफ़र के हिचकोलों में दोहरे हुए
गोल हुए , तराशे गए हैं सभी

शुक्रवार, 28 मई 2010

आदमी की अना

चाहते हुए भी वो सब दिख जाता है , फिर लफ्जों में उतरना लाजिमी है ...

क़द से ऊँची है आदमी की अना
ऊँचाई पर भी बौना ही हुआ

नजर-अन्दाज़ करके करते हैं फना
अन्दाज़ कितना शातिराना हुआ

उसके मन की उपज , उसका समाँ
अपना मौसम है जुदा , मेल ही न हुआ

किस से पूछे सवाल अपनी आशना
उसकी आँख का पानी भी अजनबी हुआ

बुधवार, 19 मई 2010

रँग सारे भरती

इतना चुभते से क्यों हैं रेशमी धागे
अपनी चलती नहीं है कुछ भी उसके आगे

मेरे काढ़े कसीदे नहीं कढ़ते
मेरे यत्नो से फूल नहीं खिलते
हाथ लगते ही तेरा ये क्या होता
अरमानों के दीप सारे जलते

डोरी रेशमी है क्यों चुभती
तिल्लेदार है आँखों में रमती
जरीदार , चटख , चमकीली
इसीलिये तो रँग सारे भरती

इतना चुभते से क्यों हैं रेशमी धागे
अपनी चलती नहीं है कुछ भी उसके आगे

सोमवार, 10 मई 2010

मन के अँगना में फलक तन्हा है

जिन्दगी तुझको जब भी देखा मैंने
इक मुखौटे को तेरे हाथ से छीना मैंने 


मन के अँगना में फलक तन्हा है
चाँद सूरज की तरह उनको उतारा मैंने


मुड़ के देखा नहीं कभी पीछे
जिन्दगी तुझसे बहुत प्यार किया है मैंने

साथ देती नहीं परछाई भी
फिर भी हर लम्हा ऐतबार किया है मैंने

हर बहाना तेरा सर माथे पर
हर मोड़ पे इन्तिज़ार किया है मैंने


बिखरूंगी तो बिखर जायेंगे वो टुकड़े
लम्बे हाथों से जिगर में जिनको रक्खा
मैंने

रविवार, 25 अप्रैल 2010

आँखों से ओझल नहीं होता

वो कौन सी महफ़िल है जिसमें दिलबर नहीं होता
हो सामने या छिपा दिल में , वो रहबर नहीं होता

तन्हाई भी करती है शिकायत
कि इक पल भी वो आँखों से ओझल नहीं होता
खबर तो उसको भी है इतना भी वो बेखबर नहीं होता
वो कौन सी महफ़िल है जिसमें दिलबर नहीं होता

दिन हो के रात हो भले
किसी सूरज , किसी चंदा, किसी तारे से कमतर नहीं होता
हो कोई भी राह किसी मन्जर का वो मुन्तज़िर नहीं होता
वो कौन सी महफ़िल है जिसमें दिलबर नहीं होता

गुरुवार, 15 अप्रैल 2010

के है कोई सबेरा

है कोई तो पहलू अँधेरा
के जिसकी तह में है कोई तो चेहरा

चलना है आँख मूँद कर
वरना क्या वक़्त है कभी ठहरा

साये सा उभरता है वो
तन्हाँ देखते ही लगता है पहरा

जुबाँ उसकी ही तो बोलते हैं
जड़ों में बस गया है जो गहरा

रौशनी करते हैं सायों पे बार बार
उघाड़ते हैं दिन-रात , के है कोई सबेरा

रविवार, 4 अप्रैल 2010

टहलाते-टहलाते

गम टहल गया मुझको टहलाते-टहलाते
आजिज आ गया था मेरे समझौते से , राह भूल गया

बाद मुद्दत के हुई उनसे मुलाक़ात जो
ईद का चाँद उतरा है फलक से , राह भूल गया


आज फिर है इश्क की बाजी
गुरूर से कह दो पहरेदार ,राह भूल गया


ये कौन सा मुकाम है
निशान बोलते खड़े राहगीर ,राह भूल गया


शुक्रिया बहती हुई हवाओं का है
सुलगा के चिन्गारी तूफ़ान , राह भूल गया

शुक्रवार, 26 मार्च 2010

थपक कौन सी

चुनरी सितारों से जड़ा रक्खी है
बिरहन ने कोई अलख जगा रक्खी है

रात कटती नहीं सब्र भी टूटा नहीं
दिल के साज पे बाशिन्दों को
थपक कौन सी सुना रक्खी है
बिरहन ने कोई अलख जगा रक्खी है

हर लम्हा है रात का आख़िरी लम्हा
रात के कानों में यही कह कर
आहट सुबह की सजा रक्खी है
बिरहन ने कोई अलख जगा रक्खी है

सोमवार, 15 मार्च 2010

बहुत दिन हुए जिन्दगी से मिले

एक ही तर्ज़ पर दो गीत
1.
बहुत दिन हुए जिन्दगी से मिले
अरमाँ मचल कर पहलू में हिले

बदला है मौसम , दिल भी है सहमा
ले चल किसी अमराई तले

पत्ता न हिलता , गुम है हवा भी
तपती जमीं पर भी पुरवाई चले

झपकता है आँखें , कुम्हलाया शज़र भी
यादों के जब जब लग आता गले
2.
बहुत दिन हुए जिन्दगी से मिले
ज़माना हुआ कुछ अपनी कहे

धड़कन वही , हर गीत में वही
जमीं भी वही, आसमाँ भी वही
लडखडाये जो हम अजनबी से मिले

शिकवे नहीं और गिले भी नहीं
अपनी वफ़ा के सिले भी नहीं
पहचाने नहीं जाते ऐसी बेरुखी से मिले

बहुत दिन हुए जिन्दगी से मिले
ज़माना हुआ कुछ अपनी कहे

शनिवार, 6 मार्च 2010

समझो के शब हुई

आये हैं बीमार बीमार का हाल पूछने
कोई और भी है मेरे जैसा , तसल्ली हुई

आहट हुई राह में देख कर गुलाब को
सेहरे में गुंथता ये , ख़्वाबों से बात हुई

कोई गुजरा था कह देते हैं निशाँ सब कुछ
छेड़े जो तराने तो या खुदा दर्द हुआ या ग़ज़ल हुई

जितना है तेरा मन उदास , दर्द भी है उतना ही
अहसास दूरी का है जितना , उतनी ही तेरी प्यास हुई

कहाँ ढलता है सूरज दिन के ढलने पर
ढल जाती है जब उम्मीद , समझो के शब हुई

शनिवार, 27 फ़रवरी 2010

रँग आ गया फागुन की बयारों का

रँग  गया फागुन की बयारों का
मस्ती के ढोल नगाड़ों का
होली का , तन-मन रँग के गीत गाने का


रँग होली का है अबीर-गुलाल
रँग जीवन का है यही , हँसी-खेल-खुशी
बहाना है चलने का , दम भरने का
रँग गया फागुन की बयारों का


थिरकन भी है धड़कन का जवाब
थाप ढोलक की नहीं , कदम थिरकते कहीं
फ़साना है धड़कनों का , थाप और लय का
रँग गया फागुन की बयारों का


सज जाता है जीवन भी
आओ लग जाएँ गले , भूल कर शिकवे-गिले
यही मौका है , दिलों के सौहाद्र बढ़ाने का
रँग गया फागुन की बयारों का

शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2010

लफ्ज़ सीते हैं

गम किया , न गुमान किया
यही तरीका है जीने का , जिसने आराम दिया

चाहा कि गम से दूरी बरकरार रहे
ये वो शय है हर कदम , जिसका दीदार किया

हम खलिश को भी रखते हैं अपनी निगरानी में
सुनते हैं कई बार वजूद इसने भी तार-तार किया

सहलाता है कभी वक़्त भी थपकियाँ दे-दे कर
घूँट भरते हैं सुकूँ के , हमने भी इंतज़ार किया

आँखें बन्द होती हैं सुकूँ में ,गुमाँ में भी
ये ठँडा रखता है ,गुमाँ की गर्मी ने बवाल किया

हम खलिश को भी देते हैं पैरहन
कलम लिखती है ,लफ्ज़ सीते हैं , अपने सीने से गम उतार दिया

गुरुवार, 4 फ़रवरी 2010

धुआँ धुआँ हो करके उठा

दिल तपता है , किसने देखा अँगारों को
वो जो धुआँ धुआँ हो करके उठा , उसे उम्र लगी परवानों की

ढलती है शमा , पिघली जो है ये अश्कों में
छा जाती है अफसानों सी , इसे उम्र लगी बलिदानों की

रँग कोई हुआ , गुलाल हुआ या मलाल हुआ
मिल जाता है इन्सां के खूँ में , इसे उम्र लगी अरमानों की

लपटें जो उठीं , कुछ धुआँ हुआ कुछ रोशनी सा
इसे पँख लगे परवाजों के और उम्र लगी दिल-वालों की

शुक्रवार, 29 जनवरी 2010

कहने को हम हैं अपनी मर्ज़ी के मालिक

अपनी दुनिया भी कहाँ अपनी है
कहने को हम हैं अपनी मर्ज़ी के मालिक
चप्पे चप्पे पे राज़ किसका है


अपनी धड़कन भी कहाँ अपनी है
अपनी चाबी तो खुद हमने
अपनी दुनिया के हाथों में थमाई है


कब ज़माने के हिलाये से हिले हम
दिल के साज़ पे सुर-ताल
अपनी दुनिया की ही तो कारस्तानी है


ज़माने से ज़ुदा जो आबाद हुई
उसके सिवा अब चलने को
दुनिया की कोई राह कहाँ अपनी है


क्या बताएँ , हम हैं उसी दुनिया के मालिक
चन्द लम्हों को छोड़ हमको
नाज़ जिसका है |

कहने को हम हैं अपनी मर्ज़ी के मालिक

शनिवार, 16 जनवरी 2010

रन्ज न रखना तुम दिल में

दुनिया को इधर उधर तुम कर लेना
पर रन्ज न रखना तुम दिल में , मेरे लिए
कह पाते नहीं जब ज़ज्बात दिल के
तुम नज़रों की भाषा पढ़ लेना

तोहफों की कीमत आँकों मत
जो खो जाएँ तो फिर न मिलें
कुछ ऐसे तोहफे बाँटो न
रन्ज न रखना तुम दिल में , मेरे लिए

मत आना किसी की बातों में
अपने ही दिल की खुराफातों में
इस दूरी को तुम पाटो न
रन्ज न रखना तुम दिल में , मेरे लिए

नज़रों को बचा कर चलना मत
नज़रों के सन्देशे पहुँचेंगे
रूठे को मनाना मुमकिन न
रन्ज न रखना तुम दिल में , मेरे लिए


सोमवार, 11 जनवरी 2010

कोई कुण्डी-ताला खोल गया

क्या जाने क्या बोल गया
लो ये भी पिछला साल गया

मत रह जाना बातों -बातों में
उड़ते हैं परिंदे वे ही तो
गढ़ते हैं कसीदे नभ की शान में जो
कोई कुण्डी-ताला खोल गया
क्या जाने क्या बोल गया

कुछ गुपचुप बातें हैं करते
पिछले सालों के पन्ने भी
चमकते हैं सुनहरी अक्षर ही तो सदियों तक
कानों में मिश्री घोल गया
क्या जाने क्या बोल गया

कुछ घड़ियाँ गुजरीं रो-रो के
जिन पलों न ठहरते पाँव जमीं
जिन्दा तो वही पल सालों -साल रहे
यादों के पन्ने खोल गया
क्या जाने क्या बोल गया