रविवार, 3 मार्च 2013

बुझ-बुझ के जले


वो दिओं सी जलती आँखें , करें इन्तिज़ार किसी का 
कौन जाने बुझ-बुझ के जले , जिया बेकरार किसी का 

हाले-दिल किस को सुनाएँ 
क्यूँ दिल है सोगवार किसी का 

रँग चाहत के भर तो लेते हम भी 
हासिल न हुआ इकरार किसी का 

हाथ लगते ही बहार आ जाती 
तमन्नाओं ये नहीं रोज़गार किसी का 

नरगिसी बातों में फिसल तो जाते हैं 
चमन में क्या है ऐतबार किसी का 

वो दिओं सी जलती आँखें , करें इन्तिज़ार किसी का 
कौन जाने बुझ-बुझ के जला है जिया बेकरार किसी का