शनिवार, 22 दिसंबर 2012

हाथ में रुमाल ही सही

सफ़र में कोई आड़ ही सही 
टिमटिमाती लौ की सँभाल ही सही 

चढ़ा जो आसमाँ में है 
अपना ख्याल ही सही 

मन लगाने के लिए 
किसी राग का धमाल ही सही 

हो आँख में आँसू तो 
हाथ में रुमाल ही सही 

न हुई ईद तो क्या 
रोज़े की मिसाल ही सही 

मिटा डालेगी नमी अपनी 
बार बार सवाल ही सही 

शनिवार, 8 दिसंबर 2012

झूठे आसरे


झूठे आसरे जितनी जल्दी टूटें 
बेहतर है आदमी के लिये 

फासले रखता है आदमी जैसे 
कमतर है आदमी आदमी के लिये 

वक्त मारेगा दो चार तमाचे और 
कितना रोयेगा ढीठ होने  के लिये 

कौन आता है तेरी बज़्म में 
महज़ ज़ख्म खाने के लिये 

नम रहता है सीना देर तक 
उम्र लगती है भुलाने के लिये 

फूलों से जिरह कैसी 
काँटे भी हैं निभाने के लिये 

हमें पता है तेरी मुश्किलें 
तू भी मजबूर है छुपाने के लिये  



शनिवार, 1 दिसंबर 2012

एक पता अपना भी होता

किसी ज़मीन पर , किसी गली में मेरा घर नहीं 
साथ चल रहा है वो मेरे , पर नहीं 

इकतरफा है मेरे गालों की लाली 
खवाबों-ख़्यालों का कोई ज़र नहीं 

हर दिन वो गुजारेगा इसी राह से 
और टूटने का अब डर नहीं 

रोंयेंगे कितना हाले-सूरत को 
उधड़ेंगे , जायेंगे मर नहीं 

किस से कहें कैसी मजबूरी 
दुनिया में आये अकारथ ,पर नहीं 

एक ज़रा सा दिल दे देते 
एक पता अपना भी होता 
यूँ ही नहीं जाते दुनिया से 
मायूस हैं हम , पर नहीं 

सोमवार, 19 नवंबर 2012

दूर जहाँ तक खड़ी है रात


जल रे दिए तू , लम्बी ज्योति 
पहुँच वहाँ , दूर जहाँ तक खड़ी है रात 

मिट्टी की मैं , तेल है तेरा 
सुख दुख सारा , खेल है तेरा 
मेरे दिल की क्या है औकात 


जल रे दिए तू , लम्बी ज्योति 
पहुँच वहाँ , दूर जहाँ तक खड़ी है रात 

जग चिड़िया का रैन बसेरा 
जोगी वाला अपना फेरा 
कैसे दूँ हालात को मात 


जल रे दिए तू , लम्बी ज्योति 
पहुँच वहाँ , दूर जहाँ तक खड़ी है रात 

हाथ पकड़ कर चलूँ मैं तेरा 
धो डाले जो पथ का अँधेरा 
सुबह सी है तेरी बात 


जल रे दिए तू , लम्बी ज्योति 
पहुँच वहाँ , दूर जहाँ तक खड़ी है रात 


रविवार, 4 नवंबर 2012

कहाँ नहीं है खुदा

तुझ में खुदा है , मुझ में खुदा है 
कहाँ नहीं है खुदा , ये बता 
पर मेरा मन क्यूँ ख़फा है 
ख़फा है , ख़फा है , ये बता 

बरसता सावन , उगता सूरज , ढलती शामें 
वो सारी दुनिया का मालिक 
मेरी हस्ती उस से जुदा है 
जुदा है , जुदा है , ये बता 

गहरी खाई , टूटा दिल है , निपट अकेला 
उजला देखूं , रब है , रब है 
झूम के गाऊँ , ये भी बदा है 
बदा है , बदा है , ये बता 


तुझ में खुदा है , मुझ में खुदा है 
कहाँ नहीं है खुदा , ये बता 
पर मेरा मन क्यूँ ख़फा है 
ख़फा है , ख़फा है , ये बता 



सोमवार, 22 अक्टूबर 2012

लगता तो नहीं था

लगता तो नहीं था कि जी पायेंगे तेरे बिन 
खिले हुए हैं मगर किसी जख्मे-आरज़ू की तरह 

साथी समाँ सामाँ सब फीके हैं 
बिन तेरे काँधे फुसलाये हुए हैं बहानों की तरह 

कितना जी चुरायें यादों से 
ये हमें देखतीं हैं मासूम सवालों की तरह 

तलाशती हैं मेरी आँखें वही अपनापन 
खो गया जो भीड़ के रेले में किसी साथी की तरह 

दूर तो नहीं गये हो तुम भी 
मगर खो गये हो ज़िन्दगी की दौड़ में बचपन की तरह 

लगता तो नहीं था कि जी पायेंगे तेरे बिन 
खिले हुए हैं मगर किसी जख्मे-आरज़ू की तरह 

रविवार, 14 अक्टूबर 2012

कोई तारा नहीं

कोई तारा नहीं , जुगनू भी नहीं 
हसरतों की आँख मिचोली भी नहीं 

अँधेरी रात में क्या क्या खोया 
बूझने को पहेली भी नहीं 

हाथ को हाथ न सूझे जो 
शबे-ग़म में कोई सहेली भी नहीं 

तुम आ जाते तो अच्छा था 
ख़्वाबों की कोई रँगोली भी नहीं 

ज़िन्दगी मिट्टी का ढेर नहीं महज़ 
फूँकना जान कोई ठिठोली भी नहीं 

सो लेते हम भी घड़ी दो घड़ी 
दिल की लगी है ,चैन की बोली भी नहीं 

रविवार, 7 अक्टूबर 2012

किसी दोस्त सा चेहरा

वो मिरे साथ चल तो सकता था 
दिल में चाह ने सताया नहीं होगा उतना 

वो मेरी खामियाँ ही निकालता रहा 
मेरे जज़्बे को नहीं देख पाया होगा उतना 

हम अपने हाल को गीतों में ढालते रहे 
ये अश्कों का सफ़र नहीं सता पाया होगा उतना 

जाने ज़िन्दगी क्या माँगती है 
रूह को कौन समझ पाया होगा उतना 

वो मुझे बहुत कुछ दे तो सकता था 
किसी दोस्त सा चेहरा मुझ में नहीं देख पाया होगा उतना 

रविवार, 30 सितंबर 2012

चाह में दम

आह में दम हो तो असर होता है 
सीना हो नम तो ज़िगर होता है 

शिकवे-शिकायत भला किसको नहीं 
बात में दम हो तो असर होता है 

जाने किस दौड़ में हुआ शामिल 
ठहर गया तो शज़र होता है 

वक्त की नज़र है बड़ी टेढ़ी 
चाल में ख़म हो तो किधर होता है 

टूटी कड़ियाँ भी जुड़ जातीं 
चाह में दम हो तो गुज़र होता है 

लाख कह ले के इन्तिज़ार नहीं 
उम्मीद में कोई मगर होता है 

मंगलवार, 18 सितंबर 2012

जश्न के बिना आदमी की गुज़र होती नहीं

अपने लिए तो ग़मों की रात ही जश्न बनी 
जश्न के बिना आदमी की गुज़र होती नहीं 
इसीलिये सजदे में सर अब भी झुका रक्खा है 

गम की आदत है ये दिन रात भुला देता है 
हम नहीं आयेंगे इसके झाँसे में 
चराग दिल का यूँ भी जला रक्खा है 

नाम वाले भी कभी गुमनाम ही हुआ करते हैं 
ज़िन्दगी गुमनामी से भी बढ़ कर है 
ये गुमाँ खुद को पिला रक्खा है 

शबे-गम की क्यूँ सहर होती नहीं 
तारे गिनते गिनते रात भी कटे 
इस उम्मीद पर दिल को बहला रक्खा है

अपने लिए तो ग़मों की रात ही जश्न बनी
जश्न के बिना आदमी की गुज़र होती नहीं
इसीलिये सजदे में सर अब भी झुका रक्खा है

बुधवार, 12 सितंबर 2012

कम कम

मुक्कमिल जहाँ किसे मिलता 
कहीं ज़मीन कम , तो है कहीं आसमान कम 

ये आदमी की मर्ज़ी है , कभी तम्बू सी ले 
कभी दरारें भर ले , ताकि ज़ख्म नजर आयें कम 

सपने के बिना उड़ान होती नहीं 
पँख दिये हैं खुदा ने , फिर भी है मीठी नीँद कम 

खूने-जिगर से सीँच लो चाहे कितना 
पैसे से खरीद लो मगर रिश्ते देंगे सुकून कम 

मजबूरी ,इम्तिहान , हौसला है गर ज़िन्दगी का नाम 
इसीलिये  ज़ायका  नमक नमक है मीठा कम 

बहुत मुश्किल है  बुरे वक्त को गुज़रते हुए देखना 
टूटी हुई रीढ़ के साथ ज़िन्दगी चल पाती है कम 

हम दोनों हाथों से सँभाल लें ऐ ज़िन्दगी तुझे 
पकड़ के रख लें मगर तुम क़ैद हो पाती हो कम कम 

शुक्रवार, 31 अगस्त 2012

कोई कोट्ठे तों सूरज

इक्क इक्क दिन मेरा लक्ख लक्ख दा 
पाणी विच लह गया वे माहिया 
इक्क इक्क कदम मेरा मण मण दा 
दिल्ल भुन्जे ढह गया वे माहिया 

साथ अपणे दी तूँ कदर ना जाणी 
कन्न मेरे विच्च कोई कह गया वे माहिया 

सवा सवा लक्ख दी सी धुप्प सुनैरी 
कोई कोट्ठे तों सूरज लै गया वे माहिया 

जिन्हाँ राहाँ दी मैं सार ना जाणी 
ओन्हीं राहीं वे तूँ लै गया वे माहिया 

सलमे-सितारे खाबाँ दी चुनरी 
हत्थ तेरे विच्च , पन्ध किन्ना रै गया वे माहिया 

इक्क इक्क दिन मेरा लक्ख लक्ख दा 
पाणी विच लह गया वे माहिया 
इक्क इक्क कदम मेरा मण मण दा 
दिल्ल भुन्जे ढह गया वे माहिया

रविवार, 19 अगस्त 2012

चाहिये भी क्या

आदमी को चाहिये भी क्या 
एक चुटकी प्यार ही ना 

है चाहतों का ऐसा असर 
नस नस में घुला खुमार ही ना 

गालों पर खिलता गुलाब 
हथेलियों पे रची रँगे-हिना 

बज रहे हैं तार दिल के 
साज दिल का है सितार ही ना 

कौन धड़कनों में शामिल है 
दिल की बस्ती है गुलज़ार ही ना 

रूह से मिटता नहीं उसका ख्याल 
रगों में खून सा शुमार ही ना 

मंगलवार, 7 अगस्त 2012

ज़िन्दगी की सोहबत


न तुम हमारे , न घर हमारा 
हम ही नादान हैं दिल लगाए हुए  

मजबूर हैं आदत से परिन्दे
तिनकों में हैं खुद को उलझाए हुए

अपनी दुनिया तो अँधेरी है
अपने क़दमों का दम भी भुलाए हुए

हाथ जो झटका तुमने
हैं आसमान तक छिटकाए हुए

हार गईं झूठी तसल्लियाँ
चला रहीं थीं जो भरमाये हुए

ये तो ज़िन्दगी की सोहबत है
सहराँ में है जो फूल खिलाये हुए

चले भी आओ के रुत बदली है
वफ़ा की बात भी है फलक पे छाये हुए

रविवार, 22 जुलाई 2012

सूरज सा निकलते रहिये

ज़िन्दगी भोर है , सूरज सा निकलते रहिये  
चहकिए चिड़ियों सा , हर लम्हे को उत्सव कहिये 

धूप ही धूप  है बराबर सबके लिए   
अपने गीतों में दुनिया की पीड़ा कहिये   

ज़िन्दगी ले जाए चाहे जिस भी  तरफ 
उफ्फ़ न करिए , सागर के थपेड़े सहिये 

हर दिन है नया दिन , कल की क्यूँ सोचें 
गुलाबों सा खिलिये , महकते रहिये   

काम आये जो किसी के , इन्सान है वही  
ये जनम , ऐसा जीवन है तो सार्थक कहिये  

मत कोसिए  अँधेरों को , ये चुनौती हैं 
मन का दीप जला , रात के सँग सँग  बहिये 

हौसला , ज़िन्दादिली , उम्मीद का रँग  देखो 
उग आता है सूरज , इनकी बदौलत कहिये  

मंगलवार, 17 जुलाई 2012

तुम मेरे हो के भी मेरे न हुए

तुम मेरे हो के भी मेरे न हुए
हम तो बरसों-बरस अन्धेरे में रहे  

साथ चलते हुए यूँ भी अक्सर
अजनबी भी बन जाते अपने 
ये कैसे सफ़र पे हम तुम
दिन रात के फेरे से रहे 

तुम मेरे हो के भी मेरे न हुए
हम तो बरसों-बरस अँधेरे में रहे

दिल लगाया तो चोट खाई भी
दिल है बड़ा सयाना तो सौदाई भी
हाय अपने ही न हुए हम
गैर के खेमे में डेरे में रहे

तुम मेरे हो के भी मेरे न हुए
हम तो बरसों-बरस अँधेरे में रहे

कौन चुनता है पग से काँटे 
कौन बिछाता है राहों में फूल 
ये किसी और ही दुनिया की बातें होंगी 
हम जमीं पर इसी घेरे में रहे  

तुम मेरे हो के भी मेरे न हुए
हम तो बरसों-बरस अँधेरे में रहे


शुक्रवार, 25 मई 2012

लौट आते परिन्दे

क्या कहिए अब इस हालत में ,
अब कौन समझने वाला है

कश्ती है बीच समन्दर में
तूफाँ से पड़ा यूँ पाला है

हम ऐसे नहीं थे हरगिज़ भी
हालात ने हमको ढ़ाला है

कह देतीं आँखें सब कुछ ही
जुबाँ पर बेशक इक ताला है

लौट आते परिन्दे जा जा कर
घर में कोई चाहने वाला है

बाँधने से नहीं बँधता कोई
आशना क्या गड़बड़ झाला है

ज़ेहन में उग आते काँटे
ये रोग हमारा पाला है

घूम आते हैं अक्सर हम भी
वक्त की तलियों में छाला है

नजरें फेरे हम जाप रहे
बाँधें आसों की माला है

सोमवार, 14 मई 2012

भरी दुनिया में तन्हा

ये मेरा दिल जो तुमने तोड़ा है   
भरी दुनिया में तन्हा  छोड़ा है    

काँच का कोई खिलौना हूँ मैं शायद   
खेल कर हाथ से जो छोड़ा है   

ढह जाती है लकड़ी दीमक लगी  
इश्क ने ऐसा घुना मरोड़ा है   

साथी भी मिले साथ भी मिले  
किस्मत को जो मन्जूर थोड़ा है   

ढल तो जाते हैं चाहतों के समन्दर  
ये तुमने हमें कहाँ लाके छोड़ा  है  

शिकायत तो नहीं गुले-गुलशन से  
वीरानी-ए-सहरा ने हमें तोड़ा है   
 
खता कोई तो होगी अपनी भी  
मेहरबानियों ने क्यूँ मुँह मोड़ा है 

ये वादियाँ तो बड़ी  सुहानी थीं   
ये कैसे मोड़ ने तोड़ा -मरोड़ा है  

शुक्रवार, 13 अप्रैल 2012

तुम ही तुम हो

यूँ ही नहीं आते हैं जलजले 
धुरी से जमीं अक्सर खिसकी ही मिले 

परेशान है दुनिया सारी 
जाने किस दौड़ में शामिल सी ये लगे 

मुस्कुरा के जो चल दे अकेले ही 
आधार कोई उँगली पकड़े मिले 

नया नहीं है कुछ भी सूरज के तले 
नया तो वो है जो सह ले जिगर से चले 

चढ़ आती है धूप मुंडेरों पर  
धूप छाया की तरह जिन्दगी ही खिले 

तारीफ़ तुम्हारी , गिले भी तुमसे 
तुम ही तुम हो हमारे साथ चले 

शुक्रवार, 30 मार्च 2012

काँपते पत्ते सा वज़ूद

रीढ़ की हड्डी की बीमारी , ज़िन्दगी की रीढ़ तोड़ देती है । मजबूरी , इम्तिहान , हौसला है ज़िन्दगी का नाम ...जा तन लागे सो तन जाने ...जिस मन ने झेला ...बिस्तर से लगा न जाने कितनी मौतें मरा । ग़ालिब ने कहा है ...पड़िये गर बीमार तो ...न हो कोई तीमारदार । कहते हैं दुःख पकड़ कर नहीं बैठ जाना चाहिए ...देता है दर्द तो , देता है दवा भी ...इतनी भी नाइंसाफी वो कभी कर नहीं पाया । हमने कितने ही टूटे-फूटों को जुड़ कर फिर जिंदगी की रेस में शामिल होते हुए देखा है । निकल आयेंगे हम भी , सिर्फ वक्त के मेहरबान होने की देरी भर है ...फिर अपना अपना जोग है । वक्त ने कान में कुछ ऐसा कहा कि जीवनी-शक्ति की मुंदती हुई आँखें खुल गईं ।

न बदले दिन , न बदलीं तारीखें
मेरे खुदा ने क्यूँ मुझसे मुँह मोड़ा है

सूरज निकला है बड़े दिनों के बाद
ले आओ किरण को , उम्मीद ने मेरा साथ छोड़ा है

जिस्म की राह में काँटे , चुनने पड़ते हैं रूह को
ये कैसी डगर है , उम्र के पास भी दम थोड़ा है

किसे खबर है आँधियाँ ले जायेंगी किस तरफ
काँपते पत्ते सा वज़ूद , हवाओं ने रुख मोड़ा है

देता दिखाई कहाँ है वक़्त के उस तरफ
पकड़ ले हाथ कोई , डूबते ने तिनके को भी छोड़ा है

जरुरी तो नहीं के तेरी दुनिया का हिस्सा बनूँ
जितना जिऊँ ठीक-ठाक जिऊँ , आस ने दम तोड़ा है

कब से लिख रहे हो , कहा किसी ने कान में
जग गया कौन ,सोच की सिम्तों ने रोग से नाता तोडा है

मंगलवार, 21 फ़रवरी 2012

झाँक के देखो तो ज़रा

वक़्त की शाख से टूटे लम्हे
टाँक के देखो तो ज़रा
टूटी है कोई डोर
झाँक के देखो तो ज़रा

पीले पत्तों की खनक
टोह के देखो तो ज़रा
ठहर जाती है खिजाँ
रोक के देखो तो ज़रा

किस्मत को नकारा
ढाँक के देखो तो ज़रा
ज़िन्दगी इतनी भी नहीं मेहरबाँ
भाँप के देखो तो ज़रा

नस-नस में बसा रावण
काँख में देखो तो ज़रा
खुदगर्जियाँ बनीं देहरी
लाँघ के देखो तो ज़रा

हिलते पानी की कहानी कहते
झाँक के देखो तो ज़रा
सारे पत्थर हैं या मरहम
आँक के देखो तो ज़रा

सोमवार, 13 फ़रवरी 2012

तुम्हारे आने से



वैलेंटाइन डे में पवित्रता का रँग भरिये ...



मैंने पूजा की थाली से , प्रसाद सा पाया है तुम्हें
सर माथे से लगा कर , किसी दुआ सा अपनाया है तुम्हें

गुजर रही थी जिन्दगी यूँ ही
तुम्हारे आने से , सुरूर सा आया है हमें

चेहरा तुम्हारा यूँ भी अक्सर
हथेलियों में चाँद सा नजर आया है हमें

तन्हाइयों में भी साथी तुम हो
ज़ुदा चलना तुम से , कब रास आया है हमें

फूलों की बगिया से उठ कर
कौन आया है फिजाँ में , गुरूर आया है हमें

हाथों में उम्मीदों के दिए रक्खे
इश्क लौ सा जगमगाता हुआ , नजर आया है हमें

मैंने पूजा की थाली से , प्रसाद सा पाया है तुम्हें
सर माथे से लगा कर , किसी दुआ सा अपनाया है तुम्हें

शुक्रवार, 3 फ़रवरी 2012

तुम श्याम देख लेना

अँधेरे से जब मैं गुजरूँ
तुम श्याम देख लेना
ढूँढे से भी मैं पाऊँ
जब कोई किरण कहीं ना
तुम लाज मेरी रखना

तपतीं हैं मेरी राहें
साया न सिर पे पाऊँ
जब घाम से मैं गुजरूँ
तुम लाज मेरी रखना

विरहन सी मैं भटकती
टकराती फिर रही हूँ
जब श्याम वन से गुजरूँ
तुम लाज मेरी रखना

तुझको खबर रही है
नजरों से है क्यों ओझल
इस दौर से मैं गुजरूँ
विष्वास मेरा रखना

अँधेरे से जब मैं गुजरूँ
तुम श्याम देख लेना
ढूँढे से भी मैं पाऊँ
जब कोई किरण कहीं ना
तुम लाज मेरी रखना

शुक्रवार, 20 जनवरी 2012

खिजाँ का मौसम

टूटे हुए दिल से भला क्या पाओगे
खिजाँ का मौसम किस तरह निभाओगे

इक कदम भी भारी है बहुत
जंजीरों में उलझ , न चल पाओगे

रुका है वक्त क्या किसी के लिए
सैलाब मगर ठहरा हुआ ही पाओगे

ठण्डी साँसें हैं पुरवाई नहीं
सहराँ की हवाओं में झुलस जाओगे

जीती-जागती बस्ती में मुर्दा है कोई
मरघट में हलचल का पता पाओगे

हमने चरागे-दिल से कहा
सहर तलक जलने की सजा पाओगे

परछाइयों से डरते हो
शबे-गम किस तरह निभाओगे

कतरा-कतरा ग़मों को पीना है
हलक से ज़िन्दगी कैसे उतार पाओगे

गुरुवार, 12 जनवरी 2012

मेरी बात और है

तुम जो चाहे सजा दे लो
मेरी बात और है , मैंने तो मुहब्बत की है

चाँदनी रात का भरम ही सही
दिल जला कर रौशनी की है

रूठ कर बैठा है मेरे घर में कोई
बन्द दरवाजों से मिन्नत की है

जिन्दगी यूँ भी गुजर जाती है
वीरानों से भी दोस्ती की है

हाले-दिल किस को सुनाने लगे
सजा में क्या कोताही की है

सह तो लेते हैं खुदा का करम
आदमी का करम , खुदा की मर्जी ही है

तुम जो चाहे सजा दे लो
मेरी बात और है , मैंने तो मुहब्बत की है