मंगलवार, 29 अक्टूबर 2013

उतनी ही ज़मीं मिलती

ज़िन्दगी एक तिहाई भर ही मिली 
किसे मिली है ,जो मुझे मिलती 
दो तिहाई की जुगत में 
धरती आसमाँ से मिलती 

बुनता रहता है आदमी सपने
पँखों को दिशा मिलती 
जितनी जीने के लिये जरुरी है 
उतनी ही ज़मीं मिलती 

दाँव पर लगे हैं हम 
खेल में चित या पट मिलती 
मोहरों की बिसात क्या 
शतरंज की बाज़ी नित मिलती 

अपने हिस्से की धूप छाया में  
ज़िन्दगी ही खिली मिलती 
सर पे सूरज की मेहरबानी से 
हौसलों को हवा मिलती 


शनिवार, 5 अक्टूबर 2013

दिन ज़िन्दगानी के चार रे

दिन ज़िन्दगानी के चार रे 
आते न बारम्बार रे 

आज की कदर कर , कल का भरोसा न कोई 
आज पे ही ज़िन्दगी को वार रे 

माँगना न कुछ भी , दिलबर तक है पहुँचने की राह 
आयेगा वो खुद ही तेरे द्वार रे 

पल पल मरना तो , रखता है ज़िन्दगी से कोसों दूर 
ज़िन्दगी के वास्ते कर ले ऐतबार रे 

दिन ज़िन्दगानी के चार रे 
आते न बारम्बार रे