शुक्रवार, 29 जनवरी 2010

कहने को हम हैं अपनी मर्ज़ी के मालिक

अपनी दुनिया भी कहाँ अपनी है
कहने को हम हैं अपनी मर्ज़ी के मालिक
चप्पे चप्पे पे राज़ किसका है


अपनी धड़कन भी कहाँ अपनी है
अपनी चाबी तो खुद हमने
अपनी दुनिया के हाथों में थमाई है


कब ज़माने के हिलाये से हिले हम
दिल के साज़ पे सुर-ताल
अपनी दुनिया की ही तो कारस्तानी है


ज़माने से ज़ुदा जो आबाद हुई
उसके सिवा अब चलने को
दुनिया की कोई राह कहाँ अपनी है


क्या बताएँ , हम हैं उसी दुनिया के मालिक
चन्द लम्हों को छोड़ हमको
नाज़ जिसका है |

कहने को हम हैं अपनी मर्ज़ी के मालिक

शनिवार, 16 जनवरी 2010

रन्ज न रखना तुम दिल में

दुनिया को इधर उधर तुम कर लेना
पर रन्ज न रखना तुम दिल में , मेरे लिए
कह पाते नहीं जब ज़ज्बात दिल के
तुम नज़रों की भाषा पढ़ लेना

तोहफों की कीमत आँकों मत
जो खो जाएँ तो फिर न मिलें
कुछ ऐसे तोहफे बाँटो न
रन्ज न रखना तुम दिल में , मेरे लिए

मत आना किसी की बातों में
अपने ही दिल की खुराफातों में
इस दूरी को तुम पाटो न
रन्ज न रखना तुम दिल में , मेरे लिए

नज़रों को बचा कर चलना मत
नज़रों के सन्देशे पहुँचेंगे
रूठे को मनाना मुमकिन न
रन्ज न रखना तुम दिल में , मेरे लिए


सोमवार, 11 जनवरी 2010

कोई कुण्डी-ताला खोल गया

क्या जाने क्या बोल गया
लो ये भी पिछला साल गया

मत रह जाना बातों -बातों में
उड़ते हैं परिंदे वे ही तो
गढ़ते हैं कसीदे नभ की शान में जो
कोई कुण्डी-ताला खोल गया
क्या जाने क्या बोल गया

कुछ गुपचुप बातें हैं करते
पिछले सालों के पन्ने भी
चमकते हैं सुनहरी अक्षर ही तो सदियों तक
कानों में मिश्री घोल गया
क्या जाने क्या बोल गया

कुछ घड़ियाँ गुजरीं रो-रो के
जिन पलों न ठहरते पाँव जमीं
जिन्दा तो वही पल सालों -साल रहे
यादों के पन्ने खोल गया
क्या जाने क्या बोल गया