कभी-कभी जब वो इंसाँ होता
औरों के जख्म-छालों पर
जब वो मरहम रखता होता
दिखता नहीं है कभी खुदा
बेशक उसका ही नजारा होता
नजर नजर का फेर है
जर्रे-जर्रे उसका ही पसारा होता
बहुत दूर नहीं वो हमसे
फैसले की घड़ी में इधर या उधर होता
होता है आदमी भी खुदा
कभी-कभी जब वो इंसाँ होता