रविवार, 25 अक्टूबर 2009

जो लम्हात हमसे लिखवाते हैं

जज्बात हमसे लिखवाते हैं
है कोई न कोई तो बात
जो लम्हात हमसे लिखवाते हैं


अपने हाथों में जिन्दगी जितनी बच जाये
फिसले जाते हैं दिन रात
जो लम्हात हमसे लिखवाते हैं


अपना चेहरा ही नहीं जाता है पहचाना
हुई ख़ुद से यूँ मुलाकात
जो लम्हात हमसे लिखवाते हैं


रोये गाये भारी मन को हल्का करने
उतरे लफ्जों में हैं हालात
जो लम्हात हमसे लिखवाते हैं


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सोमवार, 5 अक्टूबर 2009

तिनका है बना पतवार कहीं


ले चल मुझको तू पार जरा
तिनका है बना पतवार कहीं

चलना है धारा के सँग-सँग
हूँ बीच नहीं मझधार कहीं


डगमगाया है तूफाँ ने जितना
उतना ही तू दमदार कहीं

चाहत ले आती है रँग इतने
इस रौनक का तू हक़दार कहीं

चिड़ियाँ चहचहाती हैं तो जरुर
सुबह किनारे की है तरफदार कहीं

जगते बुझते तेरे हौसलों में
चाहत का ही कारोबार कहीं

छोटा अणु ही तो इकाई है
परमाणु का सूत्रधार कहीं