मंगलवार, 6 मई 2014

पढ़े , तेरे खत फिर से

बरसों बाद पढ़े , तेरे खत फिर से 
वही मौसम गुजरा है , इक बार इधर फिर से 

वो जो धूप जमी थी, निगाहों के आस-पास 
तेरे चेहरे पे झिलमिलाती हुई , दिखी है इधर फिर से 

छोड़ आई थी जो पीछे , वो अल्हड़ सी जवानी 
जागी हैं वही नादानियाँ , देखो तो इधर फिर से 

रस्मों के सहारे से , महबूब बने तुम 
मेरी दुनिया दिल से , चली है इधर फिर से 

कौन जाने किसके खतों का , अन्जाम हो क्या 
दफ़न हों सीने में या जी उट्ठे ,लम्हा-लम्हा इधर फिर से 

दुनिया से छुपा कर , लिक्खा था जिन्हें 
फूल बन कर खिले हैं वही , महके हैं इधर फिर से 

12 टिप्‍पणियां:

  1. .

    "बरसों बाद पढ़े , तेरे खत फिर से
    वही मौसम गुजरा है , इक बार इधर फिर से"

    वाऽह…!

    क्या बात है !

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  2. बरसों बाद पढ़े , तेरे खत फिर से
    वही मौसम गुजरा है , इक बार इधर फिर से
    वाह ... क्या बात है .. मज़ा आ आया इस मतले पर ... गज़ब ...

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  3. वाह-वाह क्या बात है। बहुत ही उम्दा रचना। बधाई।

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  4. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 8-5-14 को चर्चा मंच पर दिया गया है
    आभार

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  5. dr.mahendrag ने आपकी पोस्ट " तो अपना क्या होगा " पर एक टिप्पणी छोड़ी है:

    छोड़ आई थी जो पीछे , वो अल्हड़ सी जवानी
    जागी हैं वही नादानियाँ , देखो तो इधर फिर से
    सुन्दर, वक्त वक्त की बात है



    dr.mahendrag द्वारा गीत-ग़ज़ल के लिए बुधवार, मई 07, 2014 को पोस्ट किया गया

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  6. आप सब का बहुत बहुत शुक्रिया ...

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  7. आपकी इस उत्कृष्ट अभिव्यक्ति की चर्चा कल रविवार (11-05-2014) को ''ये प्यार सा रिश्ता'' (चर्चा मंच 1609) पर भी होगी
    --
    आप ज़रूर इस ब्लॉग पे नज़र डालें
    सादर

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  8. दुनिया से छुपा कर , लिक्खा था जिन्हें
    फूल बन कर खिले हैं वही , महके हैं इधर फिर से
    ....छुपकर दिल से जो लिखी होती हैं ..तभी तो महकती हैं इधर उधर
    बहुत खूब!

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मैं भी औरों की तरह , खुशफहमियों का हूँ स्वागत करती
मेरे क़दमों में भी , यही तो हैं हौसलों का दम भरतीं