है अदब भी फासले का दूसरा नाम
होती है यूँ भी इबादत कभी-कभी
जंजीरों की तरह रोक लेतीं हैं जो
दीवारें भी बोलतीं हैं राहों की इबारत कभी-कभी
चुप हो के भले बैठे दिखते हैं जो
करते हैं वो भी बगावत कभी-कभी
है आसाँ नहीं हवाओं का रुख मोड़ना
करता है ज़मीर ही खिलाफत कभी-कभी
लिखता है भला कौन ज़ुदाई के नगमे
चुभती है ये भी हरारत कभी-कभी
चलता रहता है आदमी बिना सोचे-समझे
अटका तो समझ आती है वक़्त की नफ़ासत कभी-कभी
होती है यूँ भी इबादत कभी-कभी
जंजीरों की तरह रोक लेतीं हैं जो
दीवारें भी बोलतीं हैं राहों की इबारत कभी-कभी
चुप हो के भले बैठे दिखते हैं जो
करते हैं वो भी बगावत कभी-कभी
है आसाँ नहीं हवाओं का रुख मोड़ना
करता है ज़मीर ही खिलाफत कभी-कभी
लिखता है भला कौन ज़ुदाई के नगमे
चुभती है ये भी हरारत कभी-कभी
चलता रहता है आदमी बिना सोचे-समझे
अटका तो समझ आती है वक़्त की नफ़ासत कभी-कभी
जवाब देंहटाएंचलता रहता है आदमी बिना सोचे-समझे
अटका तो समझ आती है वक़्त की नफ़ासत कभी-कभी .....bahut badhiya
चलता रहता है आदमी बिना सोचे-समझे
जवाब देंहटाएंअटका तो समझ आती है वक़्त की नफ़ासत कभी-कभी
..सच जब अपने पर पड़ती है तब ज्यादा समझ आती है ...
बहुत बढ़िया ..
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएं--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (17-11-2014) को "वक़्त की नफ़ासत" {चर्चामंच अंक-1800} पर भी होगी।
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चर्चा मंच के सभी पाठकों को
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'