मुझको इस दुनिया ने दिया भी तो क्या
मेरी निष्ठा पर है सवाल लगा , कद्र-दाँ न मिला
सारा गगन है झुका , ज़मीं है नहीं क़दमों तले
सो गये नज़ारे भी , ख़्वाबों के सितारे भी
दो कदम चल के , मेरे अरमान सारे भी
ये मोहताजी है क्यूँकर , भीड़ में तन्हा है जहान सारा ही
इम्तिहान की घड़ियाँ , वक़्त से हारे भी
हम तो हैं बेशक , सब्र के मारे भी
किसे मिली है मन्जिल , दौड़ता रहता है जहान सारा ही
मेरी निष्ठा पर है सवाल लगा , कद्र-दाँ न मिला
सारा गगन है झुका , ज़मीं है नहीं क़दमों तले
सो गये नज़ारे भी , ख़्वाबों के सितारे भी
दो कदम चल के , मेरे अरमान सारे भी
ये मोहताजी है क्यूँकर , भीड़ में तन्हा है जहान सारा ही
इम्तिहान की घड़ियाँ , वक़्त से हारे भी
हम तो हैं बेशक , सब्र के मारे भी
किसे मिली है मन्जिल , दौड़ता रहता है जहान सारा ही
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (13-12-2014) को "धर्म के रक्षको! मानवता के रक्षक बनो" (चर्चा-1826) पर भी होगी।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
bahut sunder abhivyakti...
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