वो आया तो ऐसे आया ,
जैसे हो साँझ का कोई झुटपुट साया
हाथ से फिसला वही लम्हा ,
समझा था जिसे , जीने का सरमाया
हमने देखे हैं गुलाब महकते हुए भी ,
काँटों पे चल के , ये हमने क्या पाया
सजी हुई थी चाँद तारों की महफ़िल ,
फिर ये सानिहा सा क्यूँकर आया
दाँव पर दिल ही लगा ,हर बार ,
किसके पास कभी कोई ,सिर के बल आया
ज़िन्दगी धूप ही रही है , हमेशा
छाया की फितरत को कब टिकते पाया
जैसे हो साँझ का कोई झुटपुट साया
हाथ से फिसला वही लम्हा ,
समझा था जिसे , जीने का सरमाया
हमने देखे हैं गुलाब महकते हुए भी ,
काँटों पे चल के , ये हमने क्या पाया
सजी हुई थी चाँद तारों की महफ़िल ,
फिर ये सानिहा सा क्यूँकर आया
दाँव पर दिल ही लगा ,हर बार ,
किसके पास कभी कोई ,सिर के बल आया
ज़िन्दगी धूप ही रही है , हमेशा
छाया की फितरत को कब टिकते पाया
सार्थक प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएं--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (09-02-2015) को "प्रसव वेदना-सम्भलो पुरुषों अब" {चर्चा - 1884} पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुन्दर !
जवाब देंहटाएंआस्था और ज्ञान !
newpost कहानी -विजयी सैनिक
सार्थक प्रस्तुति !
जवाब देंहटाएंगोस्वामी तुलसीदास
वाह क्या खूब ............
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंवाह बहुत खूब। बहुत ही शानदार रचना है।
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