इतने साल इस शहर में बिता कर अब जाने का वक्त हो चला है , सँगी-साथियों से बिछड़ने का वक़्त …
हम तेरे शहर से चले जायेंगे
कितना भी पुकारोगे , नजर न आयेंगे
अभी तो वक़्त है , मिल लो हमसे दो-चार बार और
फिर ये चौबारे मेरे , मुँह चिढ़ायेंगे
भूल जाना जो कभी , दिल दुखाया हो मैंने तेरा
इतने अपने हो , गैर की तरह क्यों दिल दुखायेंगे
धूप ही धूप रही , सफर में अपने बेशक
छाया तेरी भी कभी , हम न भूल पायेंगे
ये दुनिया आबाद रही हमेशा , दोस्ती के रँगों में
महफिले-यारों की सँगत , कहो किधर से लायेंगे
हम तेरे शहर से चले जायेंगे
कितना भी पुकारोगे , नजर न आयेंगे
अभी तो वक़्त है , मिल लो हमसे दो-चार बार और
फिर ये चौबारे मेरे , मुँह चिढ़ायेंगे
भूल जाना जो कभी , दिल दुखाया हो मैंने तेरा
इतने अपने हो , गैर की तरह क्यों दिल दुखायेंगे
धूप ही धूप रही , सफर में अपने बेशक
छाया तेरी भी कभी , हम न भूल पायेंगे
ये दुनिया आबाद रही हमेशा , दोस्ती के रँगों में
महफिले-यारों की सँगत , कहो किधर से लायेंगे
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना पांच लिंकों का आनन्द में मंगलवार 21 जुलाई 2015 को लिंक की जाएगी............... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (21-07-2015) को "कौवा मोती खायेगा...?" (चर्चा अंक-2043) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बढ़िया ।
जवाब देंहटाएंबहुत खूब !
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर !!
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जवाब देंहटाएंहम तेरे शहर से चले जायेंगे
कितना भी पुकारोगे , नजर न आयेंगे
...बहुत अच्छा लगा पढ़कर ..जगजीत सिंह जी की गजल याद आने लगी ..
हम तेरे शहर में आए हैं मुसाफिर की तरह
सिर्फ़ इक बार मुलाक़ात का मौका दे दे।
हम तेरे शहर में आए हैं मुसाफिर की तरह ।
मेरी मंजिल है कहाँ मेरा ठिकाना है कहाँ ,
सुबह तक तुझसे बिछड़ कर मुझे जाना है कहाँ,
सोचने के लिए इक रात का मौका दे दे ।
..............
कविता जी धन्यवाद , गुलाम अली की गाई ये ग़ज़ल मुझे बहुत पसंद है। शहर पर एक और ग़ज़ल लिखी थी , इसी ब्लॉग पर पोस्ट की थी। .
हटाएंन बुलाओ हमें उस शहर में किताबों की तरह
बयाँ हो जायेंगे हम जनाज़ों की तरह
मुमकिन है खुशबुएँ जी उट्ठें
किताबों में मिले सूखे गुलाबों की तरह
जाने किस-किस के गले लग आयें
हाथ से छूट गये ख़्वाबों की तरह
यादों के गलियारे कहाँ जीने देते
चुकाना पड़ता है कर्ज किश्तों में ब्याजों की तरह
डूब जायेंगे हम आँसुओं में देखो
न उधेड़ो हमें परतों में प्याजों की तरह
चलना पड़ता है सहर होने तलक
दिले-नादाँ शतरंज के प्यादों की तरह
मुट्ठी में पकड़ सका है भला कौन
शहर-दर-शहर गुजरे मलालों की तरह
खूबसूरत रचना ....मन के भावों को कहती हुई ...
जवाब देंहटाएंउम्दा गज़ल
जवाब देंहटाएंबधाई हो
खूबसूरत गज़ल
जवाब देंहटाएंबधाई