ज़िन्दगी इतनी आसान भी नहीं थी
दूर के मकान से देखी हुई दास्तान भी नहीं थी
दूर भागे भी तुझी से, गले लगाया भी तुझी को
महबूब की तरह इतनी मेहरबान भी नहीं थी
कैसे दिल लगा लेते हर शहर , हर घर से
ज़िन्दगी टिक के रहने का सामान भी नहीं थी
लम्हा-लम्हा जो गुजरा कोई कैसे बताये
ज़िन्दगी-ज़िन्दगी है, आंधी-तूफ़ान भी नहीं थी
हर चुभन बनी नज़्म और आँच ढली हर्फ़ों में
शिकस्तगी की भला क्या कोई ज़ुबान नहीं थी
सँग-दिलों में दिल तलाशती हूँ , ऐ ज़िन्दगी
ऐतबार, भरोसे के सिवा तेरी कोई पहचान भी नहीं थी
दूर के मकान से देखी हुई दास्तान भी नहीं थी
दूर भागे भी तुझी से, गले लगाया भी तुझी को
महबूब की तरह इतनी मेहरबान भी नहीं थी
कैसे दिल लगा लेते हर शहर , हर घर से
ज़िन्दगी टिक के रहने का सामान भी नहीं थी
लम्हा-लम्हा जो गुजरा कोई कैसे बताये
ज़िन्दगी-ज़िन्दगी है, आंधी-तूफ़ान भी नहीं थी
हर चुभन बनी नज़्म और आँच ढली हर्फ़ों में
शिकस्तगी की भला क्या कोई ज़ुबान नहीं थी
सँग-दिलों में दिल तलाशती हूँ , ऐ ज़िन्दगी
ऐतबार, भरोसे के सिवा तेरी कोई पहचान भी नहीं थी
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शनिवार 16 नवम्बर 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (17-11-2019) को "हिस्सा हिन्दुस्तान का, सिंध और पंजाब" (चर्चा अंक- 3522) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
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डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत उम्दा सृजन।
जवाब देंहटाएंजीवन और ज़िंदगी के प्रत्येक पहलू को बहुत ही सुन्दर ढंग से व्यक्त किया आदरणीया आपने.
जवाब देंहटाएंबेहतरीन अभिव्यक्ति.
सादर
कई दिनों बाद आना हुआ आपके ब्लॉग पर... पोस्ट पढ़ी तो शानदार लगी लफ़्ज़ों में गहरे अहसास .....बहुत ही खूबसूरत.....
जवाब देंहटाएंअच्छी गजल
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