सोमवार, 18 जुलाई 2011

पंख दिए हैं मगर किस से कहें

तुम्हें इतना दिया है खुदा ने के तुम फख्र करो
मुझे भी दिया है मगर कुछ कमी सी है

पंख दिए हैं मगर किस से कहें
क्यों परवाज़ में कोताही सी है

लम्हें सिर्फ टंगे नहीं हैं दीवारों पर
माहौल में कुछ गमी सी है

आदमी आदमी को पहचानता कब है
अलग अलग कोई जमीं सी है

हाल मौसम का ही अलापते रहे उम्र भर
इसी राग में ढली कोई ढपली सी है

खिजाओं में है कौन फलता फूलता
गमे यार है सीने में नमी सी है

आ गए अलफ़ाज़ जुबाँ पर छुपते छुपाते
कलम की हालत भी हमीं सी है

न करें सब्र तो क्या करें
जिन्दगी की ये शर्त भी कड़ी सी है