मंगलवार, 5 मई 2009

क़दमों में ख़म माँगा


तकता था , सिसकता था
दुनिया ने कहाँ बाँधा ?

जुबाँ को शब्द नहीं थे
शब्दों ने है कुछ बाँचा

अरमानों और हकीकत को
कहाँ कहाँ जाँचा

तेरी उँगली पकड़ने को
तेरा ही साथ माँगा

सर रख के जो ये रोता
कब मिला कोई काँधा

ऊँची-नीची डगर पर
माली ने है कुछ राँधा

सपनों में मेरे आकर
क़दमों में है कुछ बाँधा

रुसवाइयों से डर कर
वीरानों ने समाँ बांधा

अच्छा है कोई नहीं जानता
उपहारों में है क्या बाँधा

उपहारों की गिनती कम है क्या
हौसलों में दम माँगा

अपने ही चलने की खातिर
क़दमों में ख़म माँगा