मंगलवार, 6 मई 2014

पढ़े , तेरे खत फिर से

बरसों बाद पढ़े , तेरे खत फिर से 
वही मौसम गुजरा है , इक बार इधर फिर से 

वो जो धूप जमी थी, निगाहों के आस-पास 
तेरे चेहरे पे झिलमिलाती हुई , दिखी है इधर फिर से 

छोड़ आई थी जो पीछे , वो अल्हड़ सी जवानी 
जागी हैं वही नादानियाँ , देखो तो इधर फिर से 

रस्मों के सहारे से , महबूब बने तुम 
मेरी दुनिया दिल से , चली है इधर फिर से 

कौन जाने किसके खतों का , अन्जाम हो क्या 
दफ़न हों सीने में या जी उट्ठे ,लम्हा-लम्हा इधर फिर से 

दुनिया से छुपा कर , लिक्खा था जिन्हें 
फूल बन कर खिले हैं वही , महके हैं इधर फिर से 

गुरुवार, 1 मई 2014

तो अपना क्या होगा

हम तो तुम्हारी पलकों के ख़्वाबों में भी रह लेते 
तुम जो आँखों को तरेरोगे तो अपना क्या होगा 

ख़्वाब तो आसमाँ में उड़ाते हैं 
तुम जो ज़मीं पर ही उतारोगे तो अपना क्या होगा 

इरादों में हौसलों की चमक होती है 
तुम जो हकीकत को नकारोगे तो अपना क्या होगा 

बन्जारों की तरह तम्बू नहीं ताना हमने 
दिल की बस्ती को उजाड़ोगे तो अपना क्या होगा 

हम तो तुम्हारी पलकों के ख़्वाबों में भी रह लेते 
तुम जो आँखों को तरेरोगे तो अपना क्या होगा