शुक्रवार, 28 मई 2010

आदमी की अना

चाहते हुए भी वो सब दिख जाता है , फिर लफ्जों में उतरना लाजिमी है ...

क़द से ऊँची है आदमी की अना
ऊँचाई पर भी बौना ही हुआ

नजर-अन्दाज़ करके करते हैं फना
अन्दाज़ कितना शातिराना हुआ

उसके मन की उपज , उसका समाँ
अपना मौसम है जुदा , मेल ही न हुआ

किस से पूछे सवाल अपनी आशना
उसकी आँख का पानी भी अजनबी हुआ

बुधवार, 19 मई 2010

रँग सारे भरती

इतना चुभते से क्यों हैं रेशमी धागे
अपनी चलती नहीं है कुछ भी उसके आगे

मेरे काढ़े कसीदे नहीं कढ़ते
मेरे यत्नो से फूल नहीं खिलते
हाथ लगते ही तेरा ये क्या होता
अरमानों के दीप सारे जलते

डोरी रेशमी है क्यों चुभती
तिल्लेदार है आँखों में रमती
जरीदार , चटख , चमकीली
इसीलिये तो रँग सारे भरती

इतना चुभते से क्यों हैं रेशमी धागे
अपनी चलती नहीं है कुछ भी उसके आगे

सोमवार, 10 मई 2010

मन के अँगना में फलक तन्हा है

जिन्दगी तुझको जब भी देखा मैंने
इक मुखौटे को तेरे हाथ से छीना मैंने 


मन के अँगना में फलक तन्हा है
चाँद सूरज की तरह उनको उतारा मैंने


मुड़ के देखा नहीं कभी पीछे
जिन्दगी तुझसे बहुत प्यार किया है मैंने

साथ देती नहीं परछाई भी
फिर भी हर लम्हा ऐतबार किया है मैंने

हर बहाना तेरा सर माथे पर
हर मोड़ पे इन्तिज़ार किया है मैंने


बिखरूंगी तो बिखर जायेंगे वो टुकड़े
लम्बे हाथों से जिगर में जिनको रक्खा
मैंने