मंगलवार, 12 मई 2015

बगावत भी नहीं

उठते हैं दुआओं में जब हाथ मेरे 
लब हिलते ही नहीं 

टूटा है भरोसा मेरा 
अल्फ़ाज़ निकलते ही नहीं 

पड़ गये छाले हैं 
चला जाता ही नहीं 

है कैसा सफर ये 
सूलियाँ दिखती ही नहीं 

और जाऊँ भी किधर 
रूह का शहर मिलता ही नहीं 

नहीं बनना है तमाशा मुझको 
साबुत हूँ , आँख में पानी भी नहीं 

एक धीमा सा जहर उतरा है 
मेरी रगों में , बगावत भी नहीं