रविवार, 25 अप्रैल 2010

आँखों से ओझल नहीं होता

वो कौन सी महफ़िल है जिसमें दिलबर नहीं होता
हो सामने या छिपा दिल में , वो रहबर नहीं होता

तन्हाई भी करती है शिकायत
कि इक पल भी वो आँखों से ओझल नहीं होता
खबर तो उसको भी है इतना भी वो बेखबर नहीं होता
वो कौन सी महफ़िल है जिसमें दिलबर नहीं होता

दिन हो के रात हो भले
किसी सूरज , किसी चंदा, किसी तारे से कमतर नहीं होता
हो कोई भी राह किसी मन्जर का वो मुन्तज़िर नहीं होता
वो कौन सी महफ़िल है जिसमें दिलबर नहीं होता

गुरुवार, 15 अप्रैल 2010

के है कोई सबेरा

है कोई तो पहलू अँधेरा
के जिसकी तह में है कोई तो चेहरा

चलना है आँख मूँद कर
वरना क्या वक़्त है कभी ठहरा

साये सा उभरता है वो
तन्हाँ देखते ही लगता है पहरा

जुबाँ उसकी ही तो बोलते हैं
जड़ों में बस गया है जो गहरा

रौशनी करते हैं सायों पे बार बार
उघाड़ते हैं दिन-रात , के है कोई सबेरा

रविवार, 4 अप्रैल 2010

टहलाते-टहलाते

गम टहल गया मुझको टहलाते-टहलाते
आजिज आ गया था मेरे समझौते से , राह भूल गया

बाद मुद्दत के हुई उनसे मुलाक़ात जो
ईद का चाँद उतरा है फलक से , राह भूल गया


आज फिर है इश्क की बाजी
गुरूर से कह दो पहरेदार ,राह भूल गया


ये कौन सा मुकाम है
निशान बोलते खड़े राहगीर ,राह भूल गया


शुक्रिया बहती हुई हवाओं का है
सुलगा के चिन्गारी तूफ़ान , राह भूल गया