गुरुवार, 15 अप्रैल 2010

के है कोई सबेरा

है कोई तो पहलू अँधेरा
के जिसकी तह में है कोई तो चेहरा

चलना है आँख मूँद कर
वरना क्या वक़्त है कभी ठहरा

साये सा उभरता है वो
तन्हाँ देखते ही लगता है पहरा

जुबाँ उसकी ही तो बोलते हैं
जड़ों में बस गया है जो गहरा

रौशनी करते हैं सायों पे बार बार
उघाड़ते हैं दिन-रात , के है कोई सबेरा

11 टिप्‍पणियां:

M VERMA ने कहा…

जुबाँ उसकी ही तो बोलते हैं
जड़ों में बस गया है जो गहरा
सुन्दर एहसास
बेहतरीन रचना

दिलीप ने कहा…

bahut khoob ...

तन्हाँ देखते ही लगता है पहरा
http://dilkikalam-dileep.blogspot.com/

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत सुन्दर रचना!

Unknown ने कहा…

निश्चित रूप से सबसे जुदा रचना ,,,बेहद उम्दा ...सुन्दर कविता ..

विकास पाण्डेय

www.vicharokadarpan.blogspot.com

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत सुन्दर रचना है!

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

जुबाँ उसकी ही तो बोलते हैं
जड़ों में बस गया है जो गहरा

सुन्दर रचना....ये बात बहुत सटीक कही है...

शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' ने कहा…

चलना है आँख मूँद कर
वरना क्या वक़्त है कभी ठहरा....
शारदा जी....आपकी कविताएं बहुत कुछ सोचने पर विवश कर देती हैं. बधाई.

kshama ने कहा…

Jisne khuli aankhon se zindagi jee ho, wahi aisi rachana rach pata hai! Kamal karti hain aap!

Himanshu Mohan ने कहा…

रचना पूरी बहुत अच्छी है, जड़ों वाली पंक्ति बहुत गहरी है, जड़ों की तरह।
स्वागत है।

डॉ.भूपेन्द्र कुमार सिंह ने कहा…

आपकी प्रेरणा और उत्साह मेरा पारितोषिक है ,आपको हार्दिक धन्यवाद ,आभार /आपकी कविता मे दार्शनिकता और अनुभव दोनों बोलते हैं /सदर ,
डॉ.भूपेन्द्र

Dr. C S Changeriya ने कहा…

wow !!!!!!!!

bahut khub


shkehar kumawat