मंगलवार, 2 अगस्त 2011

कौन खुशियों का तलबगार नहीं

कैसे कह दें के है इन्तिज़ार नहीं
कौन खुशियों का तलबगार नहीं

दिल वो बस्ती है जो दिन रात सजा करती है
न कहना के है कोई खरीदार नहीं

तुम्हीं तो छोड़ गई हो ऐ जिन्दगी यहाँ मुझको
तुम्हें गुरेज है हमसे प्यार नहीं

बदल गए हैं मायने कितने ही
तन्हाई भी है क्या गमे-यार नहीं

कर लेते हम हालात से समझौता
जीत है ये भी , है अपनी हार नहीं

उसकी बातों में बला का जादू है
यूँ ही दुनिया का दारोमदार नहीं