शुक्रवार, 20 मई 2011

धूप छाया भी सुलगते ही मिले

एक दिन हिलने लगी नींव
इमारत के बुर्ज हिलते मिले


न गुजरें दिन न गुजरें रातें
हाथों से उम्र फिसलती मिले

या खुदा , आदमी का ऐसा भी मुकद्दर न लिख
गुजर जाए वक्त और आदमी खड़ा ही मिले


जीने के बहाने थोड़े मिले
मरने के बहाने बहुतेरे मिले


प्यास उम्रों से लगी है
धूप छाया भी सुलगते ही मिले


कुँए-तालाब , पेड़-पौधे
मौसम की राह तकते ही मिले


भला बताओ वो दोस्त कैसे हुए
फासले रख के जो दोस्तों से मिले


छिपी हैं वेदनाएँ ही संवेदनाओं में
इसीलिए हर कोई अक्सर हिलता ही मिले

शुक्रवार, 6 मई 2011

रुके रुके से दिन



रुके रुके से दिन परछाइयाँ चलती हुईं
धू-धू कर जल उठीं अमराइयाँ कितनी

स्कैच बना कर खुदा रँग भरना भूल गया
काले सफ़ेद वर्कों में रुसवाइयाँ कितनी

बहला रहे हैं खुद को आँकड़ों के खेल में
जिन्दगी की दौड़ में गहराइयाँ कितनी

सँकरे रास्ते भी देते हैं पता मंजिल का
चल चल कर बनती हैं पगडंडियाँ कितनी

अपनों के बिखर जाने से डर लगता है
भले ही दूर हों मगर हैं नजदीकियाँ कितनी

तगाफुल होते ही रहते हैं राहे इश्क में
बचे साबुत तो देखेंगे के हैं बरबादियाँ कितनी

साजिश में दुनिया की खुदा भी था शामिल
शिकायत कैसे करें , हैं उसकी मेहरबानियाँ कितनी