शुक्रवार, 30 मार्च 2012

काँपते पत्ते सा वज़ूद

रीढ़ की हड्डी की बीमारी , ज़िन्दगी की रीढ़ तोड़ देती है । मजबूरी , इम्तिहान , हौसला है ज़िन्दगी का नाम ...जा तन लागे सो तन जाने ...जिस मन ने झेला ...बिस्तर से लगा न जाने कितनी मौतें मरा । ग़ालिब ने कहा है ...पड़िये गर बीमार तो ...न हो कोई तीमारदार । कहते हैं दुःख पकड़ कर नहीं बैठ जाना चाहिए ...देता है दर्द तो , देता है दवा भी ...इतनी भी नाइंसाफी वो कभी कर नहीं पाया । हमने कितने ही टूटे-फूटों को जुड़ कर फिर जिंदगी की रेस में शामिल होते हुए देखा है । निकल आयेंगे हम भी , सिर्फ वक्त के मेहरबान होने की देरी भर है ...फिर अपना अपना जोग है । वक्त ने कान में कुछ ऐसा कहा कि जीवनी-शक्ति की मुंदती हुई आँखें खुल गईं ।

न बदले दिन , न बदलीं तारीखें
मेरे खुदा ने क्यूँ मुझसे मुँह मोड़ा है

सूरज निकला है बड़े दिनों के बाद
ले आओ किरण को , उम्मीद ने मेरा साथ छोड़ा है

जिस्म की राह में काँटे , चुनने पड़ते हैं रूह को
ये कैसी डगर है , उम्र के पास भी दम थोड़ा है

किसे खबर है आँधियाँ ले जायेंगी किस तरफ
काँपते पत्ते सा वज़ूद , हवाओं ने रुख मोड़ा है

देता दिखाई कहाँ है वक़्त के उस तरफ
पकड़ ले हाथ कोई , डूबते ने तिनके को भी छोड़ा है

जरुरी तो नहीं के तेरी दुनिया का हिस्सा बनूँ
जितना जिऊँ ठीक-ठाक जिऊँ , आस ने दम तोड़ा है

कब से लिख रहे हो , कहा किसी ने कान में
जग गया कौन ,सोच की सिम्तों ने रोग से नाता तोडा है