शनिवार, 27 फ़रवरी 2010

रँग आ गया फागुन की बयारों का

रँग  गया फागुन की बयारों का
मस्ती के ढोल नगाड़ों का
होली का , तन-मन रँग के गीत गाने का


रँग होली का है अबीर-गुलाल
रँग जीवन का है यही , हँसी-खेल-खुशी
बहाना है चलने का , दम भरने का
रँग गया फागुन की बयारों का


थिरकन भी है धड़कन का जवाब
थाप ढोलक की नहीं , कदम थिरकते कहीं
फ़साना है धड़कनों का , थाप और लय का
रँग गया फागुन की बयारों का


सज जाता है जीवन भी
आओ लग जाएँ गले , भूल कर शिकवे-गिले
यही मौका है , दिलों के सौहाद्र बढ़ाने का
रँग गया फागुन की बयारों का

शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2010

लफ्ज़ सीते हैं


गम किया , न गुमान किया
यही तरीका है जीने का , जिसने आराम दिया

चाहा कि गम से दूरी बरकरार रहे
ये वो शय है हर कदम , जिसका दीदार किया

हम खलिश को भी रखते हैं अपनी निगरानी में
सुनते हैं कई बार वजूद इसने भी तार-तार किया

सहलाता है कभी वक़्त भी थपकियाँ दे दे कर
घूँट भरते हैं सुकूँ के , हमने भी इंतज़ार किया

आँखें बन्द होती हैं सुकूँ में गुमाँ में भी
ये ठँडा रखता है गुमाँ की गर्मी ने बवाल किया

हम खलिश को भी देते हैं पैराहन
कलम लिखती है लफ्ज़ सीते हैं , अपने सीने से गम उतार दिया

गुरुवार, 4 फ़रवरी 2010

धुआँ धुआँ हो करके उठा

दिल तपता है , किसने देखा अँगारों को
वो जो धुआँ धुआँ हो करके उठा , उसे उम्र लगी परवानों की

ढलती है शमा , पिघली जो है ये अश्कों में
छा जाती है अफसानों सी , इसे उम्र लगी बलिदानों की

रँग कोई हुआ , गुलाल हुआ या मलाल हुआ
मिल जाता है इन्सां के खूँ में , इसे उम्र लगी अरमानों की

लपटें जो उठीं , कुछ धुआँ हुआ कुछ रोशनी सा
इसे पँख लगे परवाजों के और उम्र लगी दिल-वालों की