रविवार, 25 अप्रैल 2010

आँखों से ओझल नहीं होता

वो कौन सी महफ़िल है जिसमें दिलबर नहीं होता
हो सामने या छिपा दिल में , वो रहबर नहीं होता

तन्हाई भी करती है शिकायत
कि इक पल भी वो आँखों से ओझल नहीं होता
खबर तो उसको भी है इतना भी वो बेखबर नहीं होता
वो कौन सी महफ़िल है जिसमें दिलबर नहीं होता

दिन हो के रात हो भले
किसी सूरज , किसी चंदा, किसी तारे से कमतर नहीं होता
हो कोई भी राह किसी मन्जर का वो मुन्तज़िर नहीं होता
वो कौन सी महफ़िल है जिसमें दिलबर नहीं होता