तकता था , सिसकता था
दुनिया ने कहाँ बाँधा ?
जुबाँ को शब्द नहीं थे
शब्दों ने है कुछ बाँचा
अरमानों और हकीकत को
कहाँ कहाँ जाँचा
तेरी उँगली पकड़ने को
तेरा ही साथ माँगा
सर रख के जो ये रोता
कब मिला कोई काँधा
ऊँची-नीची डगर पर
माली ने है कुछ राँधा
सपनों में मेरे आकर
क़दमों में है कुछ बाँधा
रुसवाइयों से डर कर
वीरानों ने समाँ बांधा
अच्छा है कोई नहीं जानता
उपहारों में है क्या बाँधा
उपहारों की गिनती कम है क्या
हौसलों में दम माँगा
अपने ही चलने की खातिर
क़दमों में ख़म माँगा
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bahut achha laga
जवाब देंहटाएंअच्छी लगी शुक्रिया .शारदा जी ..
जवाब देंहटाएंमन की भावनाओं को सुन्दर शब्दों में बाँधा है।
जवाब देंहटाएंऊँची-नीची धरती पर, माली ने कुछ राँधा है।
कविता पढ़ कर मन प्रफुल्लित हो गया।
बहुत हीं सुन्दर भावनात्मक रेखाये है यह.
जवाब देंहटाएंVery deep and subtle thoughts:
जवाब देंहटाएं..'हौसलों में दम माँगा
अपने ही चलने की खातिर
क़दमों में ख़म माँगा ..'
An excellent blog.
God bless.
sundar kavita ke liye badhaai.
जवाब देंहटाएंsunder abhivyakti hai shubhkaamnayen
जवाब देंहटाएंबेहतरीन भाव-रचना के लिये साधुवाद स्वीकारें
जवाब देंहटाएंअच्छी पेशकश,काफी दिल से लिखा गए भाव।
जवाब देंहटाएंसाधुवाद। फिर लौटूंगा।
छोटी बहर में आप कमाल करते हैं।
जवाब देंहटाएं-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }