मंगलवार, 5 मई 2009

क़दमों में ख़म माँगा


तकता था , सिसकता था
दुनिया ने कहाँ बाँधा ?

जुबाँ को शब्द नहीं थे
शब्दों ने है कुछ बाँचा

अरमानों और हकीकत को
कहाँ कहाँ जाँचा

तेरी उँगली पकड़ने को
तेरा ही साथ माँगा

सर रख के जो ये रोता
कब मिला कोई काँधा

ऊँची-नीची डगर पर
माली ने है कुछ राँधा

सपनों में मेरे आकर
क़दमों में है कुछ बाँधा

रुसवाइयों से डर कर
वीरानों ने समाँ बांधा

अच्छा है कोई नहीं जानता
उपहारों में है क्या बाँधा

उपहारों की गिनती कम है क्या
हौसलों में दम माँगा

अपने ही चलने की खातिर
क़दमों में ख़म माँगा

11 टिप्‍पणियां:

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  2. अच्छी लगी शुक्रिया .शारदा जी ..

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  3. मन की भावनाओं को सुन्दर शब्दों में बाँधा है।
    ऊँची-नीची धरती पर, माली ने कुछ राँधा है।

    कविता पढ़ कर मन प्रफुल्लित हो गया।

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  4. बहुत हीं सुन्दर भावनात्मक रेखाये है यह.

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  5. Very deep and subtle thoughts:
    ..'हौसलों में दम माँगा
    अपने ही चलने की खातिर
    क़दमों में ख़म माँगा ..'
    An excellent blog.
    God bless.

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  6. बेहतरीन भाव-रचना के लिये साधुवाद स्वीकारें

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  7. अच्छी पेशकश,काफी दिल से लिखा गए भाव।
    साधुवाद। फिर लौटूंगा।

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मैं भी औरों की तरह , खुशफहमियों का हूँ स्वागत करती
मेरे क़दमों में भी , यही तो हैं हौसलों का दम भरतीं