बुधवार, 21 जनवरी 2015

शहर-दर-शहर गुजरे

न बुलाओ हमें उस शहर में किताबों की तरह 
बयाँ हो जायेंगे हम जनाज़ों की तरह 

मुमकिन है खुशबुएँ जी उट्ठें 
किताबों में मिले सूखे गुलाबों की तरह 

जाने किस-किस के गले लग आयें 
हाथ से छूट गये ख़्वाबों की तरह 

यादों के गलियारे कहाँ जीने देते 
चुकाना पड़ता है कर्ज किश्तों में ब्याजों की तरह 

डूब जायेंगे हम आँसुओं में देखो 
न उधेड़ो हमें परतों में प्याजों की तरह 

चलना पड़ता है सहर होने तलक 
दिले-नादाँ शतरंज के प्यादों की तरह 

मुट्ठी में पकड़ सका है भला कौन 
शहर-दर-शहर गुजरे मलालों की तरह 



11 टिप्‍पणियां:

डॉ. दिलबागसिंह विर्क ने कहा…

आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 22-01-2015 को चर्चा मंच पर चर्चा - 1866 में दिया गया है
धन्यवाद

राजीव कुमार झा ने कहा…

यादों के गलियारे कहाँ जीने देते
चुकाना पड़ता है कर्ज किश्तों में ब्याजों की तरह
बहुत सुंदर.

shashi purwar ने कहा…

waah sundar gajal

Asha Joglekar ने कहा…

चलना पड़ता है सहर होने तलक
दिले-नादाँ शतरंज के प्यादों की तरह

सुंदर

यादों के गलियारे कहाँ जीने देते
चुकाना पड़ता है कर्ज किश्तों में ब्याजों की तरह
बहुत सुंदर

shikha varshney ने कहा…

यादों के गलियारे कहाँ जीने देते
चुकाना पड़ता है कर्ज किश्तों में ब्याजों की तरह .
क्या बात कही है ..वाह ..

रश्मि शर्मा ने कहा…

बहुत सुंदर लि‍खा है

Alpana Verma ने कहा…

चलना पड़ता है सहर होने तलक
दिले-नादाँ शतरंज के प्यादों की तरह
वाह! क्या खूब कहा है ...यह ख़ास लगा.

अच्छी ग़ज़ल .

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' ने कहा…

उम्दा शेर और बेहतरीन ग़ज़ल के लिए आपको बहुत बहुत बधाई...
नयी पोस्ट@मेरे सपनों का भारत ऐसा भारत हो तो बेहतर हो

महेन्‍द्र वर्मा ने कहा…

डूब जायेंगे हम आँसुओं में देखो
न उधेड़ो हमें परतों में प्याजों की तरह

शानदार ग़ज़ल है शारदा जी ।
बहुत अच्छी लगी।

Unknown ने कहा…

अच्छी ग़ज़ल है .
गोस्वामी तुलसीदास

डॉ. मोनिका शर्मा ने कहा…

वाह , बहुत उम्दा भाव हैं