हवा का इक झोँका था , मैनें द्वार तक सजा लिया
सूरज को अभी देर है , तेरे घर तक आने में
इक सपना दिखाने को आँख लगी हो जैसे
ठगे से देखते हैं गुलशन की नाउम्मीदी को
तूने अपनी ही कोई बात कही हो जैसे
रूठा है मेरा अपना ही , मुझसे मेरा सँसार कहीं
तेरी हर पीड़ पराई हो जैसे
झुक जाता है अम्बर भी तो , धरती का तकना बेकार नहीं
छूटे लम्हें पकड़ने को साँस रुकी हो जैसे
सूरज को अभी देर है , तेरे घर तक आने में
मेरी ही आवाज में
http://dw1.convertfiles.com/audio/0253253001239901540/download.html
सूरज को अभी देर है , तेरे घर तक आने में
इक सपना दिखाने को आँख लगी हो जैसे
ठगे से देखते हैं गुलशन की नाउम्मीदी को
तूने अपनी ही कोई बात कही हो जैसे
रूठा है मेरा अपना ही , मुझसे मेरा सँसार कहीं
तेरी हर पीड़ पराई हो जैसे
झुक जाता है अम्बर भी तो , धरती का तकना बेकार नहीं
छूटे लम्हें पकड़ने को साँस रुकी हो जैसे
सूरज को अभी देर है , तेरे घर तक आने में
मेरी ही आवाज में
http://dw1.convertfiles.com/audio/0253253001239901540/download.html
Sundar rachna hai.
जवाब देंहटाएंसूरज को अभी देर है, अन्धकार बड़ा है।
जवाब देंहटाएंदस्तक की अभी देर है,वो दर पे खड़ा है।
आशा ही जीवन है।
बहुत ही सुन्दर रचना!
जवाब देंहटाएंआप का ब्लाग बहुत अच्छा लगा।
मैं अपने तीनों ब्लाग पर हर रविवार को
ग़ज़ल,गीत डालता हूँ,जरूर देखें।मुझे पूरा यकीन
है कि आप को ये पसंद आयेंगे।