रविवार, 18 जुलाई 2010

साँस-साँस दुआ ही हो

कितनी ही टिप्पणियाँ और कितनी ही रचनाएं पढ़ी जाने के बाद नई रचनाओं का जन्म होता है । निचली पोस्ट ' सखी सी ही ' पर पहली टिप्पणी क्षमा जी की , उन्होंने लिखा कि किसी की लिखी हुई ये पंक्तियाँ याद आ गईं ।
हर रूह में इक गम छुपा लगे है मुझे
ज़िन्दगी तू इक बद-दुआ-सी लगे है मुझे

बस यहीं से जन्म हुआ इन पंक्तियों का

गम लाख हों सीने में मगर जिन्दगी बददुआ न हो
कडवे घूँट पीकर भी , साँस-साँस दुआ ही हो

बड़े जतनों से माली ने पाला हो जिसे
वो नाजुक सी बेलें फूलों की हमनवाँ ही हों

नीम के पेड़ पर चढ़ कर भूले अपना भी पता
रास आया तो नहीं खिली हुई मगर वफ़ा ही हो

हवाओं में बिखर या खुशबू से लिपट
दूर फ़िज़ाओं में बुलाता हुआ वो अपना पिया ही हो

सैलाब को मोड़ें तो सीँचे हर कोई
खेत-खलिहानों में उगती हुई फसल नगमा ही हो

14 टिप्‍पणियां:

  1. Bahut khoob,Shardaji!Yah hui na sakaratmak baat !
    Har or dua ke nagme hon!

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  2. हवाओं में बिखर या खुशबू से लिपट
    दूर फ़िज़ाओं में बुलाता हुआ वो अपना पिया ही हो ..

    बहुत खूब लिखा है ... लाजवाब ...

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  3. मनोभावनाओं की नदी बहा ले जाती है

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  4. रचना के भाव बहुत खूबसूरत हैं शारदा जी. बधाई.

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  5. बेहतरीन रचना...बधाई...एक टिपण्णी से भी इतनी असरदार रचना बाहर आ सकती है...वाह...
    नीरज

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  6. ...बड़े जतनों से माली ने पाला हो जिसे
    वो नाजुक सी बेलें फूलों की हमनवाँ ही हों....बहुत सुंदर ग़ज़ल...

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  7. गम लाख हों सीने में मगर जिन्दगी बददुआ न हो
    कडवे घूँट पीकर भी , साँस-साँस दुआ ही हो
    Bahut Sunderabhiwyakti aur wah bhi ek tippani ki badaulat.

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  8. वाह, क्या लिखा है! उसपर से यह कह देना ईमानदारी से कि टिप्पणी से उद्भव हुआ है रचना का, रचनाकार की अतिशय विनम्रता और परिपक्वता का परिचायक है।

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  9. नीम के पेड़ पर चढ़ कर भूले अपना भी पता
    रास आया तो नहीं खिली हुई मगर वफ़ा ही हो

    बहुत सुन्दर रचना ... बेहतरीन पंक्तियाँ ...

    आज पहली बार आया हूँ ... अच्छी लगी आपकी रचना ... इसलिए फोल्लो कर रहा हूँ ... आगे भी आते रहूँगा ...

    मेरे ब्लॉग पर टिपण्णी देने के लिए शुक्रिया !

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मैं भी औरों की तरह , खुशफहमियों का हूँ स्वागत करती
मेरे क़दमों में भी , यही तो हैं हौसलों का दम भरतीं