दिन है बड़ा मटमैला सा
उड़ गया चैन मेरे हाथों से
नीँद की ही तरह
अब न शाम- सहर
रातें जो न हों तारों भरी
हम जुगनू लेकर चल लेते
छल करता है सूरज जब-जब
छाया का टुकड़ा दे दे कर
दिन का है कहो , ये कौन पहर
अब न शाम- सहर
दिन कब होते सब एक से हैं
छाया भी यहाँ बेमानी सी लगे
अपना ही आप कहानी सी लगे
किस से मिल कर , ढाया ये कहर
अब न शाम- सहर
रोया था उस दिन आसमाँ भी
आया था जब वो साथ मेरे
पसीजा था तो मेरी ही तरह
बिखरा हुआ , आया था नजर
अब न शाम-सहर
बहुत बहुत धन्यवाद , शास्त्री जी , ये पोस्ट ब्लॉग वाणी पर पब्लिश भी नहीं हुई और टिप्पणियों की सेटिंग में भी कुछ हेर फेर किया नहीं है , तो कुछ समझ नहीं आ रहा | ऐसे में आपका ध्यान इस तरफ गया , शुक्रगुजार हूँ |
जवाब देंहटाएंरातें जो न हों तारों भरी
जवाब देंहटाएंहम जुगनू लेकर चल लेते
छल करता है सूरज जब-जब
छाया का टुकड़ा दे दे कर
दिन का है कहो , ये कौन पहर
अब न शाम- सहर
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अहा!क्या खूबसूरत लिखा है!मन में उतर गयी..कितने कोमल भाव हैं! शारदा जी ..अद्भुत !
एक अनूठी कविता
जवाब देंहटाएंभावों से भरपूर
विचारों से औतप्रोत
आनंद आया पढ़कर
sundar rachanaa
जवाब देंहटाएंMan ke bhaavon ko salike se sajaaya hai.
जवाब देंहटाएं-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
एक धारा प्रावाह कविता जिसमे भावो के समन्दर है तो शब्दो के प्रवाह.....
जवाब देंहटाएंअब न शाम-सहर
जवाब देंहटाएंदिन है बड़ा मटमैला सा
बेहतरीन प्रवाहमयी रचना
किसी बेहद ख़ास ने मुझे यह कविता
जवाब देंहटाएंपढने के लिए आपकी पोस्ट का लिंक दिया था !
बहुत ही सुन्दर
अंतर्मन को सहलाती हुयी लाजवाब रचना !
अब ज्यादा तारीफ़ न करके
सीधे फालोवर ही बन जाता हूँ !
आपका आभार
शुभकामनाएं
अद्भुत नज़्म है ....इसे पढ़कर गुलज़ार साहब की एक नज़्म याद आ गयी .....
जवाब देंहटाएं".दिन "-
आज का दिन जब मेरे घर में फौत हुआ
जिस्म की रंगत जगह जगह से फटी हुई थी
सुर्ख खराशे रेंग रही थी ,बांहों पर !
पलके झुलसी झुलसी सी ,ओर चेहरा धज्जी धज्जी था -
हाथ में थे कुछ चीथड़े से अखबारों के
लैब एक पे शिकस्ता थी आवाज थी बस !
देख इन बारह घंटो में क्या हालत की है दुनिया ने !
शारदा जी बहुत ही सुंदर कविता, आप का धन्यवाद
जवाब देंहटाएंरातें जो न हों तारों भरी
जवाब देंहटाएंहम जुगनू लेकर चल लेते
छल करता है सूरज जब-जब
छाया का टुकड़ा दे दे कर
दिन का है कहो , ये कौन पहर
बहुत बढ़िया...