बुधवार, 19 मई 2010

रँग सारे भरती

इतना चुभते से क्यों हैं रेशमी धागे
अपनी चलती नहीं है कुछ भी उसके आगे

मेरे काढ़े कसीदे नहीं कढ़ते
मेरे यत्नो से फूल नहीं खिलते
हाथ लगते ही तेरा ये क्या होता
अरमानों के दीप सारे जलते

डोरी रेशमी है क्यों चुभती
तिल्लेदार है आँखों में रमती
जरीदार , चटख , चमकीली
इसीलिये तो रँग सारे भरती

इतना चुभते से क्यों हैं रेशमी धागे
अपनी चलती नहीं है कुछ भी उसके आगे

5 टिप्‍पणियां:

  1. अनुपम !

    अभिनव कविता .........

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  2. डोरी रेशमी है क्यों चुभती
    तिल्लेदार है आँखों में रमती
    जरीदार , चटख , चमकीली
    इसीलिये तो रँग सारे भरती

    इतना चुभते से क्यों हैं रेशमी धागे
    अपनी चलती नहीं है कुछ भी उसके आगे

    Kahan se le aati hain aise khoobsoorat alfaaz? Aisi anoothi kalpnayen?

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  3. हाथ लगते ही तेरा ये क्या होता
    अरमानों के दीप सारे जलते....
    अहसास की नाज़ुकी को सलीके से पिरोया है आपने.

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  4. रेशम की चुभन का कहना ही क्या...बहुत ही सुंदर...

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मैं भी औरों की तरह , खुशफहमियों का हूँ स्वागत करती
मेरे क़दमों में भी , यही तो हैं हौसलों का दम भरतीं