लगता तो नहीं था कि जी पायेंगे तेरे बिन
खिले हुए हैं मगर किसी जख्मे-आरज़ू की तरह
साथी समाँ सामाँ सब फीके हैं
बिन तेरे काँधे फुसलाये हुए हैं बहानों की तरह
कितना जी चुरायें यादों से
ये हमें देखतीं हैं मासूम सवालों की तरह
तलाशती हैं मेरी आँखें वही अपनापन
खो गया जो भीड़ के रेले में किसी साथी की तरह
दूर तो नहीं गये हो तुम भी
मगर खो गये हो ज़िन्दगी की दौड़ में बचपन की तरह
लगता तो नहीं था कि जी पायेंगे तेरे बिन
खिले हुए हैं मगर किसी जख्मे-आरज़ू की तरह
खिले हुए हैं मगर किसी जख्मे-आरज़ू की तरह
साथी समाँ सामाँ सब फीके हैं
बिन तेरे काँधे फुसलाये हुए हैं बहानों की तरह
कितना जी चुरायें यादों से
ये हमें देखतीं हैं मासूम सवालों की तरह
तलाशती हैं मेरी आँखें वही अपनापन
खो गया जो भीड़ के रेले में किसी साथी की तरह
दूर तो नहीं गये हो तुम भी
मगर खो गये हो ज़िन्दगी की दौड़ में बचपन की तरह
लगता तो नहीं था कि जी पायेंगे तेरे बिन
खिले हुए हैं मगर किसी जख्मे-आरज़ू की तरह
बहुत उम्दा!
जवाब देंहटाएंदुर्गाष्टमी की हार्दिक शुभकामनाएँ!
दूर तो नहीं गये हो तुम भी
जवाब देंहटाएंमगर खो गये हो ज़िन्दगी की दौड़ में बचपन की तरह
Betareen abhiwyakti!
Dasere kee anek shubh kamnayen!
वाह बहुत खूबसूरत रचना | दशहरे की हार्दिक शुभकामनायें |
जवाब देंहटाएंbahut sundar ....
जवाब देंहटाएंsaadar
anu
तलाशती हैं मेरी आँखें वही अपनापन
जवाब देंहटाएंखो गया जो भीड़ के रेले में किसी साथी की तरह
Bahut Khoob.....
बेहद खूबसुरत रचना, विजयादशमी की हार्दिक शुभकामनाएं
जवाब देंहटाएंविजयदशमी की बहुत बहुत शुभकामनाएं
जवाब देंहटाएंबढिया, बहुत सुंदर
क्या बात
bahut sundar rachna....
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