सोमवार, 22 अक्टूबर 2012

लगता तो नहीं था

लगता तो नहीं था कि जी पायेंगे तेरे बिन 
खिले हुए हैं मगर किसी जख्मे-आरज़ू की तरह 

साथी समाँ सामाँ सब फीके हैं 
बिन तेरे काँधे फुसलाये हुए हैं बहानों की तरह 

कितना जी चुरायें यादों से 
ये हमें देखतीं हैं मासूम सवालों की तरह 

तलाशती हैं मेरी आँखें वही अपनापन 
खो गया जो भीड़ के रेले में किसी साथी की तरह 

दूर तो नहीं गये हो तुम भी 
मगर खो गये हो ज़िन्दगी की दौड़ में बचपन की तरह 

लगता तो नहीं था कि जी पायेंगे तेरे बिन 
खिले हुए हैं मगर किसी जख्मे-आरज़ू की तरह 

8 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत उम्दा!
दुर्गाष्टमी की हार्दिक शुभकामनाएँ!

kshama ने कहा…

दूर तो नहीं गये हो तुम भी
मगर खो गये हो ज़िन्दगी की दौड़ में बचपन की तरह
Betareen abhiwyakti!
Dasere kee anek shubh kamnayen!

Minakshi Pant ने कहा…

वाह बहुत खूबसूरत रचना | दशहरे की हार्दिक शुभकामनायें |

ANULATA RAJ NAIR ने कहा…

bahut sundar ....

saadar

anu

डॉ. मोनिका शर्मा ने कहा…

तलाशती हैं मेरी आँखें वही अपनापन
खो गया जो भीड़ के रेले में किसी साथी की तरह

Bahut Khoob.....

अरुन अनन्त ने कहा…

बेहद खूबसुरत रचना, विजयादशमी की हार्दिक शुभकामनाएं

महेन्द्र श्रीवास्तव ने कहा…

विजयदशमी की बहुत बहुत शुभकामनाएं

बढिया, बहुत सुंदर
क्या बात

कविता रावत ने कहा…

bahut sundar rachna....