शनिवार, 8 दिसंबर 2012

झूठे आसरे


झूठे आसरे जितनी जल्दी टूटें 
बेहतर है आदमी के लिये 

फासले रखता है आदमी जैसे 
कमतर है आदमी आदमी के लिये 

वक्त मारेगा दो चार तमाचे और 
कितना रोयेगा ढीठ होने  के लिये 

कौन आता है तेरी बज़्म में 
महज़ ज़ख्म खाने के लिये 

नम रहता है सीना देर तक 
उम्र लगती है भुलाने के लिये 

फूलों से जिरह कैसी 
काँटे भी हैं निभाने के लिये 

हमें पता है तेरी मुश्किलें 
तू भी मजबूर है छुपाने के लिये  



9 टिप्‍पणियां:

ANULATA RAJ NAIR ने कहा…

बहुत अच्छी गज़ल शारदा जी...
कौन आता है तेरी बज़्म में
महज़ ज़ख्म खाने के लिये

बढ़िया शेर..

अनु

Sunil Kumar ने कहा…

अच्छी गज़ल.....

ओंकारनाथ मिश्र ने कहा…

फूलों से जिरह कैसी
काँटे भी हैं निभाने के लिये

शानदार शेर. बड़ी अच्छी ग़ज़ल.

अरुन अनन्त ने कहा…

उम्दा ग़ज़ल आदरणीया बधाई स्वीकारें
अरुन शर्मा
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रचना दीक्षित ने कहा…

फूलों से जिरह कैसी
काँटे भी हैं निभाने के लिये

हमें पता है तेरी मुश्किलें
तू भी मजबूर है छुपाने के लिये

बहुत सुंदर नज़्म. बधाई शारदा जी.

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' ने कहा…

उम्दा, बेहतरीन अभिव्यक्ति...बहुत बहुत बधाई...

बेनामी ने कहा…

excellent...
gahri baat kitni sarlta se kah gaye..

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
संजय भास्‍कर ने कहा…

नम रहता है सीना देर तक
उम्र लगती है भुलाने के लिये
बहुत सुंदर नज़्म.....शारदा जी