शुक्रवार, 27 जून 2025

रंग ज़िन्दगी के

रंग ज़िन्दगी के ही बिखरते रहे 

हर हाल में जीने की क़सम खाये हैं 


सावन की झड़ी बरस कर चली भी गई 

चंद लम्हे ही हाथ आये हैं 


ख्वाबों के रंग तो बड़े चटकीले थे 

आँख में क्यों पशो-पेश के जंगल से उग आये हैं 


वक्त की धूप में तपे हैं 

मटमैले से हो आये हैं 


कुन्दन बनने की चाह तो थी 

भट्ठी से घबरा के उठ आये हैं 


पहला कदम ही तय करता है ढलान 

दिशा सही से ही मुकाम नजर आए हैं 


किसी को लगे कुन्दन से , किसी को पिछड़े हुए 

रखो तो पारखी नजर , वो किन जूतों में चल के आये हैं 

4 टिप्‍पणियां:

मुकेश कुमार सिन्हा ने कहा…

waah

Digvijay Agrawal ने कहा…

आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में रविवार 23 नवंबर , 2025 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद!

हरीश कुमार ने कहा…

बेहतरीन

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

वाह