रंग ज़िन्दगी के ही बिखरते रहे
हर हाल में जीने की क़सम खाये हैं
सावन की झड़ी बरस कर चली भी गई
चंद लम्हे ही हाथ आये हैं
ख्वाबों के रंग तो बड़े चटकीले थे
आँख में क्यों पशो-पेश के जंगल से उग आये हैं
वक्त की धूप में तपे हैं
मटमैले से हो आये हैं
कुन्दन बनने की चाह तो थी
भट्ठी से घबरा के उठ आये हैं
पहला कदम ही तय करता है ढलान
दिशा सही से ही मुकाम नजर आए हैं
किसी को लगे कुन्दन से , किसी को पिछड़े हुए
रखो तो पारखी नजर , वो किन जूतों में चल के आये हैं




4 टिप्पणियां:
waah
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में रविवार 23 नवंबर , 2025 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद!
बेहतरीन
वाह
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