झाँक आती है लेखनी
उसके दिल में
जो मेरा लगता नहीं कुछ
फ़िर भी बड़ा करीब है
पढ़ आती है उसका दिल
ये उसी राह का मुसाफिर
लगता रकीब है
तेरी हथेलियों की हिना में मेरा नाम है कि नहीं
तेरी सोचों में मेरी जगह है कि नहीं
हर दिन के साथ मद्धिम होता है रँगे-हिना
मगर वो रूहे-हिना वक़्त को बाँध लेती है
हौसलों को अन्जाम देती है
वही रूहे-हिना मेरे नाम है कि नहीं
मन को चढ़ता है गहरा होता है रँगें-खुशबु-ऐ-वफ़ा
याद दिलाने को है हिना समाँ बाँध लेती है
हाथों को थाम लेती है
वही रँगे-हिना मेरे नाम है कि नहीं
Shardaji,
जवाब देंहटाएंGazab ke alfaaz hain..!
शारदाजी आज सुबह से तीसरी बार आपके ब्लोग पर आयी हून मगरटिप्पणी पोस्त नहीम हो रही कृ्प्या चेक करें आपकी कविता बहुत सुन्दर है
जवाब देंहटाएंमन को चढ़ता है गहरा होता है रँगें-खुशबु-ऐ-वफ़ा
याद दिलाने को है हिना समाँ बाँध लेती है
हाथों को थाम लेती है
वही रँगे-हिना मेरे नाम है कि नहीं
बहुत खूबसूरत अभिव्यक्ति बधाई
निर्मला कपिला
समय समय पर आप मेरी हौसला अफजाई करती रहीं हैं , बहुत बहुत धन्यवाद
मैं आपकी ई-मेल हू-ब-हू पेस्ट कर रही हूँ , बार बार सेटिंग्स में जाकर भी कारण नहीं पता लगा , मगर हाँ टिप्पणी पोस्ट कर पाई हूँ |
एक बार फिर शुक्रिया
शारदा
"वही रँगे-हिना मेरे नाम है कि नहीं"
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर गद्य-गीत है।
बधाई।
बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंनिरन्तर: जोग - जरा मुस्कुरा दें
एक पुरानी बात को आपने नये अंदाज में बंया किया है.. पसंद आया.
जवाब देंहटाएंबेहद खूबसूरत रचना
जवाब देंहटाएंहथेलियों की हिना में मेरा नाम"
जवाब देंहटाएंखूबसूरत एहसास की कविता