बुधवार, 29 जुलाई 2009

हथेलियों की हिना में मेरा नाम


झाँक आती है लेखनी
उसके दिल में
जो मेरा लगता नहीं कुछ
फ़िर भी बड़ा करीब है
पढ़ आती है उसका दिल
ये उसी राह का मुसाफिर
लगता रकीब
है

तेरी हथेलियों की हिना में मेरा नाम है कि नहीं
तेरी सोचों में मेरी जगह है कि नहीं

हर दिन के साथ मद्धिम होता है रँगे-हिना
मगर वो रूहे-हिना वक़्त को बाँध लेती है
हौसलों को अन्जाम देती है
वही रूहे-हिना मेरे नाम है कि नहीं

मन को चढ़ता है गहरा होता है रँगें-खुशबु-ऐ-वफ़ा
याद दिलाने को है हिना समाँ बाँध लेती है
हाथों को थाम लेती है
वही रँगे-हिना मेरे नाम है कि नहीं


7 टिप्‍पणियां:

  1. शारदाजी आज सुबह से तीसरी बार आपके ब्लोग पर आयी हून मगरटिप्पणी पोस्त नहीम हो रही कृ्प्या चेक करें आपकी कविता बहुत सुन्दर है
    मन को चढ़ता है गहरा होता है रँगें-खुशबु-ऐ-वफ़ा
    याद दिलाने को है हिना समाँ बाँध लेती है
    हाथों को थाम लेती है
    वही रँगे-हिना मेरे नाम है कि नहीं
    बहुत खूबसूरत अभिव्यक्ति बधाई
    निर्मला कपिला
    समय समय पर आप मेरी हौसला अफजाई करती रहीं हैं , बहुत बहुत धन्यवाद
    मैं आपकी ई-मेल हू-ब-हू पेस्ट कर रही हूँ , बार बार सेटिंग्स में जाकर भी कारण नहीं पता लगा , मगर हाँ टिप्पणी पोस्ट कर पाई हूँ |
    एक बार फिर शुक्रिया
    शारदा

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  2. "वही रँगे-हिना मेरे नाम है कि नहीं"
    बहुत सुन्दर गद्य-गीत है।
    बधाई।

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  3. एक पुरानी बात को आपने नये अंदाज में बंया किया है.. पसंद आया.

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  4. हथेलियों की हिना में मेरा नाम"
    खूबसूरत एहसास की कविता

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मैं भी औरों की तरह , खुशफहमियों का हूँ स्वागत करती
मेरे क़दमों में भी , यही तो हैं हौसलों का दम भरतीं