शुक्रवार, 20 मई 2011

धूप छाया भी सुलगते ही मिले

एक दिन हिलने लगी नींव
इमारत के बुर्ज हिलते मिले


न गुजरें दिन न गुजरें रातें
हाथों से उम्र फिसलती मिले

या खुदा , आदमी का ऐसा भी मुकद्दर न लिख
गुजर जाए वक्त और आदमी खड़ा ही मिले


जीने के बहाने थोड़े मिले
मरने के बहाने बहुतेरे मिले


प्यास उम्रों से लगी है
धूप छाया भी सुलगते ही मिले


कुँए-तालाब , पेड़-पौधे
मौसम की राह तकते ही मिले


भला बताओ वो दोस्त कैसे हुए
फासले रख के जो दोस्तों से मिले


छिपी हैं वेदनाएँ ही संवेदनाओं में
इसीलिए हर कोई अक्सर हिलता ही मिले

24 टिप्‍पणियां:

  1. वाह, क्या बात है.

    भला बताओ वो दोस्त कैसे हुए
    फासले रख के जो दोस्तों से मिले

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  2. छिपी हैं वेदनाएँ ही संवेदनाओं में
    इसीलिए हर कोई अक्सर हिलता ही मिले

    bahut achchhi panktiyan.....

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  3. प्यास उम्रों से लगी है
    धूप छाया भी सुलगते ही मिले

    गज़ब की भावाव्यक्ति है………गज़ल का हर शेर और शेर का हर शब्द ही जैसे सुलग रहा है।

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  4. न गुजरें दिन न गुजरें रातें
    हाथों से उम्र फिसलती मिले


    या खुदा , आदमी का ऐसा भी मुकद्दर न लिख
    गुजर जाए वक्त और आदमी खड़ा ही मिले
    Kitni gahrayee aur sachhayee hai in baaton me!

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  5. या खुदा , आदमी का ऐसा भी मुकद्दर न लिख
    गुजर जाए वक्त और आदमी खड़ा ही मिले

    ....बहुत सटीक अभिव्यक्ति..हरेक पंक्ति अंतस को छू जाती है..

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  6. कुँए-तालाब , पेड़-पौधे
    मौसम की राह तकते ही मिले

    भला बताओ वो दोस्त कैसे हुए
    फासले रख के जो दोस्तों से मिले

    छिपी हैं वेदनाएँ ही संवेदनाओं में
    इसीलिए हर कोई अक्सर हिलता ही मिले
    bahut khoob.
    aapko padna shuru se hee bahut accha lagta hai....
    Aabhar

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  7. या खुदा , आदमी का ऐसा भी मुकद्दर न लिख
    गुजर जाए वक्त और आदमी खड़ा ही मिले


    भला बताओ वो दोस्त कैसे हुए
    फासले रख के जो दोस्तों से मिले


    बहुत खूब ...सुन्दर रचना

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  8. शारदा जी इस बेहद संवेदनशील रचना के लिए हार्दिक बधाई स्वीकारें

    नीरज

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  9. या खुदा , आदमी का ऐसा भी मुकद्दर न लिख
    गुजर जाए वक्त और आदमी खड़ा ही मिले

    हर एक पंक्ति लाजवाब....बेहद संवेदनशील रचना ...........

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  10. बहुत दिनों बाद एक अच्छा ब्लॉग देखा,पढ़ा,बधायी

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  11. न गुजरें दिन न गुजरें रातें
    हाथों से उम्र फिसलती मिले
    बहुत खूब ...सुन्दर रचना

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  12. भला बताओ वो दोस्त कैसे हुए
    फासले रख के जो दोस्तों से मिले
    सही है, ये दूर की दोस्ती किस काम की।

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  13. छिपी हैं वेदनाएँ ही संवेदनाओं में
    इसीलिए हर कोई अक्सर हिलता ही मिले

    Bahut sunder...

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  14. सुन्दर भाव और अभिव्यक्ति के साथ आपने लाजवाब ग़ज़ल लिखा है जो काबिले तारीफ़ है! बधाई!

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  15. अच्छे भाव हैं परन्तु गज़ल तकनीकी रूप से कमज़ोर है...नियम नहीं निभाये जा सके हैं...

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  16. भला बताओ वो दोस्त कैसे हुए
    फासले रख के जो दोस्तों से मिले ...
    बहुत खूब .. हाए शेर अपने आप में मुकम्मल बात रखता हुवा ... लाजवाब ....

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  17. प्यास उम्रों से लगी है
    धूप छाया भी सुलगते ही मिले
    वाह ..बहुत खूब कहा है आपने ।

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  18. कुँए-तालाब , पेड़-पौधे
    मौसम की राह तकते ही मिले
    भला बताओ वो दोस्त कैसे हुए
    फासले रख के जो दोस्तों से मिले
    ....fasalon se dosti mein duriya nirantar badhti jaati hai, phir bhi vqt-bevkt yaad aa hi jaati hain.....
    .bahut badiya prastuti..

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  19. अमूमन,हम सब का जीवन ऐसे ही बीत रहा है।

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  20. न गुजरें दिन न गुजरें रातें
    हाथों से उम्र फिसलती मिले

    सुन्दर,गहरी अभिव्यक्ति को प्रतिध्वनित करती पंक्तियाँ !
    आभार !

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  21. जीने के बहाने थोड़े मिले
    मरने के बहाने बहुतेरे मिले

    प्यास उम्रों से लगी है
    धूप छाया भी सुलगते ही मिले

    बेहतर शेर
    सोच से भरे ख्यालात
    अच्दी बात

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  22. जीने के बहाने थोड़े मिले
    मरने के बहाने बहुतेरे मिले
    वाह!क्या खूब कहा है!
    -हर शेर सरल मगर गंभीरता लिए लगा.

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मैं भी औरों की तरह , खुशफहमियों का हूँ स्वागत करती
मेरे क़दमों में भी , यही तो हैं हौसलों का दम भरतीं