गुरुवार, 22 जनवरी 2009

झंकार की इक कल्पना


सुन्दर सा ला तू पाहुना
ये है मेरा उलाहना

क्यूँ भूल बैठा है हमें
कुछ भी तुझ से छुपा ना


खुश रहतें हैं भुलावों में
कैसे जियें बता ना


आहट भी जिसकी लाती है
झन्कार की इक कल्पना


कैसे बता साकार हो
यथार्थ की वो अल्पना

पलकें बिछाए बैठे हैं
दस्तक तो दे खुशबू का वो फ़साना


दिल में सजा के रख लेंगे
कुदरत का वो नजराना , आशिआना

4 टिप्‍पणियां:

Vinay ने कहा…

बहुत सुन्दर मनोभावना का उदगार

---आपका हार्दिक स्वागत है
गुलाबी कोंपलें

MANVINDER BHIMBER ने कहा…

पलकें बिछाए बैठे हैं



दस्तक तो दे खुशबू का वो फ़साना






दिल में सजा के रख लेंगे



कुदरत का वो नजराना , आशिआना bahut achcha likha hai

Udan Tashtari ने कहा…

बढ़िया है.

राज भाटिय़ा ने कहा…

अति सुंदर.
धन्यवाद